मंगलवार, 23 सितंबर 2008

प्यार, पैसा, हिन्दी और चाँद का कुर्ता

[प्रणाम]

कैटरिना कैफ गेमा और हिन्दी कैटरीना कैफ को आप सब जानते हैं । गेमा को फिलहाल सिर्फ़ मैं ही जानता हूँ। (इस लेख को पढने के बाद आप भी गेमा को जान जायेगें) आप सोच रहे होंगे दोनों का आपस में क्या वास्ता ? दरअसल, ये दोनों ही हिन्दी भाषा को शिद्दत से सीखना चाहती हैं । लेकिन दोनों के उद्देश्य अलग अलग हैं । मेरा मित्र जोगिन्दर पवार लन्दन में हैं । पिछले दिनों जोगिन्दर भारत आया हुआ था । जोगिन्दर की गर्ल फ्रेंड गेमा हिन्दी सीखना चाहती है । उसे हिन्दी सीखनी है क्योंकि उसका मानना है कि जब वो भारत में आए (दुल्हन बनकर ही) तो जोगिन्दर के परिजनों से हिन्दी में बात कर सके उन्हें उनकी भाषा में समझ सके। दरअसल, प्यार में अक्सर ऐसा ही होता है कि प्यार प्रेमी की भाषा से भी हो जाता है. ऐसा भी कहा जाता है यदि आप की दिलचस्पी किसी भाषा में अचानक बढ़ रही है तो कहीं न कहीं ये मामला प्यार का हो जाता है।

कैटरीना कैफ को हिन्दी सीखनी है क्योंकि वो हिन्दी फिल्मों में काम करती है. हिन्दी के बिना उसका गुज़ारा हिन्दी फिल्मों में लंबे अरसे तक हो नही सकता .कैटरीना ये बात अच्छी तरह जानती है , सो हिन्दी कैटरीना के मामले में पैसे की भाषा है। हिन्दी बाज़ार की भाषा बन रही है और हिन्दी प्यार की भाषा भी है। ब्लोगिंग में हिन्दी प्रेमी बढ़ चदकर अपना योगदान दे रहे है. न केवल देश में बल्कि विदेशों में बसे हिन्दी भाषी विविधता पूर्ण सौगात हिन्दी भाषा में दे रहे है । हिन्दी विज्ञापन, मीडिया ,सिनेमा इन्टरनेट हर तरफ धूम मचा रही है ।

लेकिन चाँद अपनी माँ से जिद कर रहा है उसे कुर्ता चाहिए .सर्दी उसे तंग करती है .रामधारी सिंह दिनकर की यही शैली उन्हें अलग करती है .छोटे प्रतीकों से बड़ी बात कहने की उनकी कला हमारे हिन्दी साहित्य की अनमोल सम्पदा है . उल्टा तीर पत्रिका "दिनकर "का यह अंक विश्व हिन्दी दिवस और दिनकर जन्म शती के अवसर पर आप सभी के लिए प्रस्तुत है …
लेखक का ब्लॉग:http://dilseamit.blogspot.com


बयार अब तक बाक़ी है!

उल्टा तीर पत्रिका दिनकर आप सभी सुधि पाठकों को साधुवाद के साथ अर्पित हैं। आप सभी का रचनात्मक सहयोग ही हमारी सच्ची ताक़त हैउल्टा तीर पत्रिका का यह दूसरा अंक हमारा छोटा सा प्रयास है उम्मीद कि आप सभी को यह प्रयास पसंद आएगा

आभार साहित
अमित के. सागर
उल्टा तीर



तुम लोग
उन लोगो को
अपने घर का दिया
अपनी बाती
किस ख़ुशी में देते हो
किस लालच में देते हो
और क्यों देते हो?

जिन लोगों की सामर्थ्य
एक पूरे गाँव को
एक पूरे शहर को
रौशन कर देने की है

मगर
वो
अँधेरा तारी होते ही
बंद कर लेते हैं
अपने घरों की खिड़कियाँ
अपने घरों के दरवाज़े
जिन्हें मतलब नहीं रहता
तुम्हारी अँधेरा तारी रातों से
तुम्हारी रातों के हादसों से

जिनसे मिलकर मगर
रौशन हो सकता है
सारा ज़हां

लेकिन ऐसा होता नहीं!
फ़िर क्यों नहीं
तुम लोग ही
निकल पड़ते
एकत्रित होके
मशाल बनके
अँधेरा तारी में
ख़ुद ही अपनी लौ को लेके
क्योंकि तुम्हारे अन्दर
सबको रौशन करने की
बयार अब तक बाकी है!

सूरज को बांहों में भर लो (बाबा धरनीधर की रचनाएँ )

(पत्रकार एवं साहित्यकार बाबा स्व. श्री संपतराव धरणीधर मध्य भारत के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैंहिन्दी साहित्य को बाबा ने अपने लहू से सिंचित किया हैबाबा ने अभावों में साहित्य साधना की हैगरीबी संघर्ष को उन्होंने करीब से देखा व् जिया किंतु वे साधना के पथ से हटे नही डिगे नहीआज़ादी के आन्दोलन में भी भाग लियाहिन्दी साहित्य को अपनी कविता से समृद्ध कियाविश्व हिन्दी दिवस के इस अवसर पर उनकी अनमोल अद्वितीय साहित्य विरासत से दो रचनाये बाबा धरनीधर को विनम्र श्रद्धांजलि के साथ सादर समर्पित हैसाहित्य के इस मनीषी को उल्टा तीर परिवार हृदय की गहराई से याद करता है।)

आओ कुछ ऐसा कर लें

अंधियारा पीजायें सारा
सूरज को बाहों में भर लें
आओ कुछ ऐसा कर लें

झूंठ अभी भी
फूलों की सेजों पे सोता है
एक अगर सुकुरात
ज़हर भी पी ले तो
क्या होता है

कीचड की खुशबू में
हम सब भूल जाएँ
ये दरवाजे पर आई गंगा
चादर बुन-बुन
कबीर हरा
फ़िर भी मन
नंगा का नंगा

ढाई अक्षर की चादर
ये आओ हम भी तो
कुछ गढ़ लें
आओ कुछ येसा कर लें
अंधियारा पी जाएँ सारा
सूरज को बाहों में भर लें...

मौसम कुछ बदला-बदला है
जाने क्या मनहूस घड़ी है
तुलसीदास की चौपाई पर
विद्वता बीमार पड़े है
अंधी आँखें सूरज की
कब तक कि कोई पथ दर्शाए
कब तक प्रेम पीया सी मीरा
राज महल में ज़हर पचाए
आओ भूषण बनकर हम भी
शब्द-शब्द रत्नों से भर लें
आओ कुछ ऐसा कर लें
अंधियारा पी जाएँ सारा
सूरज को बाहों में भर लें...

हंसाने को तो हंसा चमन भी
किंतु बहारें पास कहाँ हैं
क्या गुल कलियाँ खिला गईं
फूलों को विश्वाश कहाँ है
मन चंगा तो सब कहते हैं
पर कौन गले रैदास लगाए
मर्दाने को कब तक
नानक, राम, रहीम, भेद बताये

भेद समझकर ये अन्तर का
हम अपने को पावन कर लें
आओ कुछ येसा कर लें
अंधियारा पी जाएँ सारा
सूरज को बाहों में भर लें...

पंख कटा कर मरा जटायू
हम बस हवा पकड़ रहे हैं
लक्ष्मण की सीमा पर
घर आँगन से झगड़ रहे हैं
जल जल कर ये सीता कब तक
दफ़न भूमि में होती जाए
सिंहासन के आगे कब तक
लवकुश अपने अश्रु बहाए

इन मासूमी आंखों से
हम आओ कुछ आँसू हर लें
आओ कुछ ऐसा कर लें
सूरज को बाहों में भर लें
आओ कुछ ऐसा लें...
(नहीं है मरणपर्व से)

(पत्रकार एवं साहित्यकार बाबा स्व. श्री संपतराव धरणीधर एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में भी जाने जाते रहे . प्रस्तुत है उनकी कविता मुझे फांसी पे लटका दो १९४६ मैं नागपुर केंदीय जेल में जेलर एवं जेल कर्मचारियों को तंगाने के लिए यह रचना बाबा एवं उनके ७०० साथी जोर -जोर से गाते थे।)

मुझे फांसी पे लटका दो .
मैं ईमान से कहता हूँ कि मैं देशद्रोही हूँ
मुझे फांसी पे लटका दो
कि मैं भी एक बागी हूँ .

ये कैसा बाग़ है जिसमे गुलों पर सांप लहराते
ये कैसा राग है जिसमें सुरों से ताल घबराते

तुम्हारी ये बज्म कैसी जहाँ गुलज़ार हैं सपने
तुम्हारे दीप ये कैसे, लगे जो शाम से बुझने

ऐसे अधजले दीपक जलाना भी मनाही है
तो मैं ईमान से कहता हूँ कि
मैं देशद्रोही हूँ ।

मुझे फांसी पे लटका दो
कि मैं भी एक बागी हूँ ।

हिन्दी भाषा के मर्मज्ञ रामधारी सिंह दिनकर

(प्रेम परिहार अपनी साहित्यिक सक्रियता के लिए चिर परिचित हैउनकी संस्था द्वरा दिनकर जन्म शती वर्ष में विविध आयोजन किए गएरामधारी सिंह दिनकर के कृतित्व और व्यक्तित्व पर प्रेम परिहार का यह आलेख राष्ट्र कवि दिनकर को श्रद्धा सुमन हैं)

दिनकर तुम दिनकर हिन्दी के, भारत के माथे की बिंदी.
मात्रभाषा के प्रबल साराथी, 'प्रेम' धन्य ध्वजा फहराए हिन्दी।


दिनकर किसी परिचय के मोहताज़ नहीं है,दिनकर किसी परिचय के मोहताज़ नहीं है. हिन्दी साहित्य की काव्य धारा के एक सशक्त हस्ताक्षर के रूप में उनकी प्रतिभा हमेशा ही जाग्रत रही है. दिनकर को पढ़ना हिन्दी के अन्तर को अपनी चेतना में जाग्रत करना है. विगत वर्ष २००७ में हमने हरवंश राय बच्चन जन्म-शताब्दी का समापन एवं इसके साथ ही दूसरे दिन से राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की जन्म्षता ही समारोह की आयोजनों की शुरूआत की. आर्य समाज सभागार ग्रीन पार्क नई दिल्ली से प्रारम्भ हुई यह यात्रा अपने विभिन्न आयौजन को पूरी करते हुए पुनः नई दिल्ली बसंत कुञ्ज सामुदायिक भवन में समापन की ओर बढ़ रही है. रास्ट्रीय स्तर पर विगत २८ वर्षों से रास्ट्रीय साहित्य, संगीत एवं नाटक, छायांकन, पर्यावरण एवं मीडिया की विभिन्न विभागों को स्थानीय स्तर से रास्ट्रीय स्तर एवं अंतरास्तीय स्तर पर पहुंचकर एक मिशाल कायम की. संस्कृति के चार अध्याय एक समग्र दिनकर चिंतन को रेखांकित करता है. रश्मिरथी में रामधारी सिंह दिनकर ने सजीवता का परिचय दिया है.

ज्ञानपीठ पुरस्कार से पुरुस्कृत राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने साहित्य के आकाश में अपनी विशेष उपस्तिथि प्राप्त की. बचपन से लेकर अन्तिम पढाव तक दिनकर आकाश के सूर्य की तरह चमकते रहे और कभी मेघाच्छारित होने से छिप भी गए.
मन के अन्दर की व्यथा को शब्दों में चित्रित कर पाना आसान नहीं होता. मैंने राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जन्म-स्ताब्धी समारोह के अंतर्ग अनेक प्रदेशों में उनके सम्बन्ध में सूना समझा और पढ़ा तो एक इन्द्रधनुष जैसी रंगीन घटा उभरकर मानस में विभिन्न रंगों को परिभाषित करती हुई प्रतीत हुई. हारे को हरिनाम उनकी कृतियों में अलग स्थान रखती है. विभिन्न विधाओं में शब्दों के चितेरे अपना सर्वस्व चिंतन जन मानस के समझ प्रस्तुत किया है. जीवन विभिन्न चरणों से होकर गुज़रता है इन सबमें मन की परिस्तिथियाँ बदलती रहती हैं. मनुष्य अपनी बात अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग तरह से व्यक्त करता है. एक विचार पाठकों के साथ बाँट लेना उचित समझता हूँ. पूर्व की कहावत है: 'जहाँ न पहुंचे रवि, वहाँ पहुंचे कवि'
कवि की रंगभूमि कविता होती है और अपने मानस की अभिव्यक्ति वह शब्दों के माध्यम से प्रस्तुत करता है. मुझे लगता है कि कवि के अनुभव उसे सार्थक दशा दिशा और संभावनाएं प्रदान करते हैं. राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर सूर्य के सामान प्रकाशित कवि के समान परिभाषित और अनुभ के सार्थक दिशा के राही एवं लक्ष्य के साधक रहे हैं और हम अगली पीढी के पथिकों को उनकी रचनाओं पर मात्र जनस्ती पर ही नहीं हमेशा ही संवाद करना चाहिए.
(प्रेम परिहार। सी पी सी दूरदर्शन दिल्ली)

दिनकर एक परिचय

संक्षिप्त जीवन परिचय : ३० सितम्बर सन् १९०८ ई0 में बिहार प्रांत के मुंगेर जिले के सिमरिया नामक गाँव में जन्म २४ अप्रैल, १९७४ ई0. देहावसान.
पिता : श्री रवि सिंह
माता : मनरूप देवी

प्रमुख साहित्यिक कृतियाँ:
रेणुका, हुंकार, कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी और परशुराम की प्रतिज्ञा (सभी काव्य) अर्धनारीश्वर, वट पीपल, उजली आग, संस्कृति के चार अध्याय (निबंध): देश विदेश (यात्रा) आदि उल्लेखनीय कृतियाँ हैं.

प्रमुख सम्मान: सन 1959 में पद्मभूषण (भारत सरकार द्वारा) सन 1962 में भागलपुर विश्वविद्यालय ने दिनकर जी को डी.लिट. की मानद उपाधि से सुशोभित किया उर्वशी पर इन्हे 1972 में भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया.

दिनकर जी के समग्र कृतित्व व् व्यक्तित्व का अवलोकन:
'दिनकर' जी का जन्म ३० सितम्बर सन् १९०८ ई0 में बिहार प्रांत के मुंगेर जिले के सिमरिया नामक गाँव में हुआ था. इनके पिता अत्यन्त साधारण स्तिथि के किसान थे. 'दिनकर' जी जब केवल दो साल के थे, तभी इनके पिता का स्वर्गवास हो गया था. इनकी विधवा माता ने इनकी सिक्षा का प्रबंध किया. इन्होने पटना विश्वविद्यालय से सन् १९३२ ई- में बी.ए. (आनर्स) की परीक्षा उत्तीर्ण की थी. ये बड़े मेधावी थे. छात्र-जीवन से ही इनमें कविता के संस्कार अंकुरित हो गए थे. हाईस्कूल करने के बाद ही इनकी 'प्रण-भंग' नामक पुस्तक प्रकाशित हो गयी थी.

'दिनकर' जी हाईस्कूल के प्राधानाध्यापक से लेकर, बिहार सरकार के अधीन 'सब-रजिस्ट्रार', प्राचार-विभाग के उपनिदेशक, मुजफ्फरपुर स्नातकोत्तर कोलेज में हिन्दी के विभागाध्यक्ष, राज्यसभा के सदस्य तभा भागलपुर विश्विद्यालय के कुलपति तक रहे थे. सन् १९६२ ई0 में भागलपुर विश्वविध्यालय ने इनको डी0 लिट0 की उपाधी से विभूषित किया था. भारत सरकार द्बारा ये पदमभूषण से भी अलंकृत हुए थे. इनकी रचना 'उर्वशी' पर इनको भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया था. २४ अप्रैल, १९७४ ई0 को हिन्दी साहित्य का यह दिन सदा के लिए अस्त हो गया.

सन् १९३३ ई0 में प्रकाशित 'हिमालय' नमक कविता दिनकर जी की पहली प्रसिद्द कवितात ही. इनकी रचनाओं में 'रेणुका', नीलकुसुम', 'सीपी और शंख', 'उर्वशी', 'परशुराम की प्रतीक्षा' और 'हारे को हरिनाम' कविता पुस्तकें तथा 'संस्कृति के चार अध्याय', 'अर्धनारीश्वर', 'रेती के फूल', 'उजली आग' आदि गध्य पुस्तकें प्रमुख हैं. इनका गद्ध भी उच्कोती का तथा प्रांजल है. राष्ट्रकवि के रूप में इन्हें 'रेणुका' से ही प्रसिद्धी प्राप्त हो गयी थे.

'दिनकर' जी की कविताओं में अतीत के प्रति प्रेम तथा वर्तमान युग की दयनीय दशा के प्रति असंतोष है. इनका मुख्य विषय अतीत का गौरव गान है तथा प्रगति और निर्माण के पथ पर अग्रसर होने का संदेश देना है. इनकी कविता में गरीबी के प्रति सहानुभूती और पूंजीवाद के प्रति आक्रोश के भावना भी है. 'दिनकर' जी की अधिकाँश कविताओं में राष्ट्रीयता की भावना है तथा कुछ कविताओं में विश्व-प्रेम की झलक है. इनके अन्तिम कविता-संग्रह 'हारे को हरिनाम' से इनके भक्ति की ओर मुड़ने का संकेत मिलता है.

'दिनकर' जी की भाषा सशक्त, प्राभ्शाली एवं प्रांजल खड़ी-बोली है. भाषा में संकृत के तत्सम शब्दों के साथ उर्दू-फारसी के प्रचिलित शब्दों का प्रयोग भी मिलता है. इनका चित्रण भावपूर्ण तथा कविता का एक-एक शब्द आकर्षक होता है. इन्होने अपने प्रबंध काव्यों में व्यास-शैली, जातिवादी रचनाओं में भावात्मक शैली और उद्बोधन गीतों में गीति शैली का प्रयोग किया है. इनके काव्य में सभी रसों का समावेश है, पर वीर रस की प्राधानता है. इनके काव्य में विदिध छंदों की सरगम सुनाई देती है. इन्होने कवित्व, सवैया को नवीनता प्रदान की है और अधिकतर आधुनिक छंदों का प्रयोग किया है. इनकी रचनाओं में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, द्रष्टान्त, निर्दार्शना आदि साद्रश्य्मूलक अलंकारों के अतिरिक्त छायावादी अलंकार-पद्धती का भी सफल प्रयोग देखने को मिलता है.

नवीन चेतना और जनमानस में देश-भक्ती की लहरें उठाने वाले गद्धय और पद्धय में समान अधिकार से लिखने वाले 'दिनकर' जी अपने युग के प्रतिनिधि कवि थे. हिन्दी साहित्य आपकी सेवाओं के लिए सदाव ऋणी रहेगा।

हमारे ह्रदय की चेतना की चिंगारी: मातृभाषा हिन्दी

(दिल्ली दूरदर्शन में कार्यरत लैंसमेन प्रेम परिहार का अधिकांश समय तस्वीरों , सामयिक हलचल को कैद करने में बीतता हैइतनी व्यस्तता के बाद भी वे लेखन और समाज सेवा के कार्यों में भी उतने ही सक्रिय हैंहिन्दी कवि औरलेखक के रूप में भी उनकी प्रसिद्धि हैप्रेम परिहार हिन्दी को ह्रदय की चेतना की चिंगारी मानते हैं । )


हिन्दी है सौभाग्य देश का, हिन्दी हमको प्यारी है
हर भाषा से सरल-सुद्रढ़, यह हिन्दी न्यारी है
हिन्दी को आगे लाने का अभियान हमारा जारी है
शशी श्यामला पुण्यभूमि यह, भारत माँ को प्यारी है
राष्ट्रभाषा मात्रभाषा हिन्दी हमारे मानस की संवेदनाओं में गुंथी है. जीवन के प्रत्येक चरण में, मानवीयता के प्रत्येक छंद में ह्रदय की मिठास अपनी मात्रभाषा से ही उजागर होती है. समय की गणना भी हमारी भाषा में वैज्ञानिक रीति से सार्थकता पाकर हुई है. परम्पराओं की गहरी नींव हमारी सनातन है जिसे समय-समय पर नवीनता प्रदान की है हमारे चिंतकों, विचारकों, साहित्यकारों, पत्रकारों एवं जनमानस के चितेरों ने. इस वसुधा के ह्रदय भारतवर्ष में जीवन पाना ही जीवन की सार्थकता है. विदेशी विचारकों ने भी समय-समय पर विवेचना की है कि धरती की ऊपर भारतदेश को प्रकृति ने अपनी सर्वश्रेष्ठ विरासत सौंपी है. जन-जन इस देश की विरासत से अपनी मानवीयता का परिचय देता है. हिन्दी एक सेतु का कार्य करती है किसी को भी जोड़ने में, आजादी की मिशाल एक कोने से दूसरे कोने तक हिन्दी में ही सार्थकता प्राप्त कर सकी.

आजादी की प्राप्ति से लेकर आजतक का सफर सुहाना रहा है, तकनीक ने विकास किया है, विज्ञान ने हमें सुविधाओं का भण्डार सौंप दिया है. जीने के लिए हमारे पास असीमित संसाधन प्राप्त हैं. परन्तु बसुधैव कुटुंबकम का नारा आज किताबे या यदा-कडा समारोहों में मात्र उच्चारित करने मात्र के लिए प्रयोग में लाया जाता है. जिंदगी भीड़ में अकेली ही होती जा रही है. कलंक की छाया स्पष्ट दिखाई दे रही है, स्वाभिमान का अस्तित्व समाप्त हो गया है. हम अपन घर में ही अकेलापन महसूस करते हैं. संचार की प्रक्रिया में मीडिया ने अपने अनेकों मापदंड स्थापित किए हैं. हमारा देश विभिन्नताओं को लेकर असीमित संभावनाओं को उद्घाटित करता है. हिन्दी संवाहक का कार्य सदैव करती रहती है. परन्तु हिन्दी के प्रति प्रेम हमारी नयी पीढी एवं अमीर वर्ग से बिल्कुल विदा हो गया है. मैं व्यक्तिगत स्टार पर मानता हूँ कि हमारे देश में जन्म से लेकर पालने बढे होने के प्रक्रिया से गुज़रना सौभाग्यशाली है क्योंकि यहाँ घर की अपनी निजी भाषा है हिन्दी. हिन्दी हमारी मात्रभाषा है और अन्तराष्ट्रीय स्तर पर हम स्वाभिक रूप से 'आंग्ल' भाषा का प्रयोग कर लेते हैं.
मानवीय चेतना की चिंगारी हिन्दी अपन ही घर में पराई होती जा रही है. महानगरीय लोग हिन्दी बोलना अपना दुर्भाग्य मानते हैं. बड़े होने का गर्भ करने वाले भी हिन्दी को अपने कार्य के रूप में प्रयोग में नहीं लाते. प्रगति के पथ पर बढ़ने वाले हमारे हिन्दी सिनेमा के महानायक, नायक एवं सह्नायाक इत्यादी चर्तिर को चलचित्रों में अभिनय करने वाली भी हिन्दी बोलने में हिचकिचाहट महसूस करते हैं. एक तरफ़ सारा विश्व हिन्दी के बड़े बाजार की ओर आकर्षित है वहीं दूसरी ओर हिन्दी के ऊपर जीवन यापन करने वाले उसे अपनी जननी मानने में तुच्छता का अनुभव करते हैं. मेरा भारत देश के ही नहीं विषय युवाओं से विनर्म निवेदन है कि हिन्दी को अपने कार्य व्यवहार, बोलचाल एवं लेखन में सर्वाधिक स्थान प्रदान करें. यह आपको स्वाभिमानी बनाएगा. गीता की यह उक्ति मुझे पूर्णतः सार्थक लगती है "स्वधर्मं निधन श्रेय, पर्धर्मों भयावह"

चिंगारी चमकती रहे

(करमबीर पवार उल्टा तीर परिवार का महतवपूर्ण हिस्सा हैं हमें सतत रूप से उनका मार्गदर्शन एवं स्नेह मिलता रहता है दिनकर जन्म शती वर्ष और हिन्दी दिवस के सामायिक सन्दर्भ पर उनका चिंतन हमें सोचने पर मजबूर करता है)

अमित जी हिन्दी दिवस और रामधारी सिंह दिनकर जी का जनमशती वर्ष बहुत बहुत मुबारक हो सबसे पहले मैं हिन्दी दिवस के विषय मे कुछ बताना चाहूँगा आख़िर क्यों हिन्दी दिवस मनाये हम, हम तो जीवन भर हिन्दी ही बोलते है और हिन्दी हिन्दुस्तान की मात्रभाषा है तो क्यों हम हिन्दी को बोलते वक्त शर्म महसूस करे आज भी हिन्दी भाषाई लोग किसी अन्य भाषी की अपेक्षा जल्दी ही दुसरे के दुःख में सामिल हो जाता है ये केवल भाषा ही नही बल्कि एक परम्परा है जिसको ख़त्म करने की कोशिश की जा रही है अन्य भाषाई लोगो के द्वारा विशषकर अंग्रेजी भाषा के समर्थको के द्वारा रामधारी जी ने कहा था:-

कलमें लगाना जानते हो तो जरूर लगाओ ,
मगर ऐसे कि फलो मे
अपनी मिटटी का स्वाद रहे
और यह बात याद रहे कि परम्परा चीनी नही ,मधु है
वह न तो हिंदू है न मुस्लिम है
न द्रविड़ है न आर्य है

इसका अर्थ केवल इतना ही है कि यदि आपको विदेशी परम्परा और सभ्यता का ही पालन करना है तो जरूर करो लकिन इतना ध्यान जरूर रखो कि तुम्हारे द्वारा किए गए कार्यो के परिणाम भारतीय परम्पराओ व सभ्यता के अनुरूप ही होने चाहिए । हमारे देश के कुछ सवार्थी नेताओ के द्वारा आज़ादी से पहले ही अंग्रेजी को अपने लिए अंग्रेजो के विस्वास पात्र बनने का हथियार बना लिया था जो आज़ादी के साठ साल बाद भी कामयाब है अब वो लोग भारत के नए भाग्य विधाता बन बेटे है आम भारतीय आज भी गुलाम है हिन्दी भाषा कि तरह जिसे केवल कुछ मौको पर ही अपने साथ बेठा लिया जाता है केवल इस डर से कि कंही दुबारा वह आज़ादी जो अधूरी ही है को पूर्ण आज़ादी मे बदलने का परयाश न करे लकिन कभी तो हर हिन्दुस्तानी इस सचाई को जानेगा और तब हमे पुरी आज़ादी लेने से कोई नही रोक पायेगा बल्कि पुरे विश्व मे हिन्दी का परचम लहराने लगेगा

रामधारी जी के विषय मे शायद कुछ भी लिखना मेरे लिए बहुत ही मुस्किल है फ़िर भी उनका नाम ही उनके व्यक्तिव को उजागर करता है "रामधारी" जिसने राम को ही धारण कर लिया हो "सिंह "जो शेर के सामान किसी से भी भयभीत न होता हो "दिनकर"और जिसके आते ही सूर्ये के सामान प्रकाश चारो और फ़ैल जाता हो ऐसे लेखक को पड़ने वालो के अन्दर भी उस प्रकाश का कुछ अंश तो जरूर होगा ही इस लिए मे भी इस प्रयासः मे रहता हूँ कि जीवन मे अपने देश के लिए और समाज के उस हर वर्ग को होसला देने का प्रयाश करूगा जो दिनकर के दिखाए पथ पर चलने का प्रयासः भी करेगा क्युकि वह हर वर्ग को संघर्ष कि प्रेरणा देता है और कमज़ोर कि आवाज़ बन ताकतवर को भी सुनाई देता है रामधारी जी को भारतीयों ने राष्ट्कवि का सम्मान दिया जिस प्रकार गाँधी जी को राष्टपिता का इससे यह भी पता चलता है की रामधारी जी की कलम के सभी वर्ग सम्मान करते थे अंत मे सिर्फ़ इतना-
चिंगारी चमकती रहे सदा उज्जवल होकर
आदमी बचाए उसे सर्वस्व खोकर...
(आलेख : करमबीर पंवार)

रामधारी सिंह दिनकर का बाल्य काव्य

(डा० महेंद्रभटनागर हिन्दी में उच्चकोटि के लेखन के लिए अपना एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैंइस आलेख में उन्होंने दिनकर जी की बाल्य लेखनी पर गहन आलोक डाला हैसाथ ही दिनकर की बाल्य रचनाओं के विषय में काफ़ी कुछ लिखा है)

‘दिनकर’ जी हिन्दी के उच्च-कोटि के यशस्वी कवि हैं। विषय-वैविध्य उनके काव्य की एक विशेषता है। इसके अतिरिक्त उनके काव्य का स्वरूप भी विविधता लिए हुए है। एक ओर तो उनकी रचनाएँ भाव-धारा की दृष्टि से इतनी गहन हैं तथा साहित्यिक सौन्दर्य से वे इतनी समृद्ध हैं कि उनका आस्वाद्य केवल कुछ विशिष्ट प्रकार के पाठक ही कर सकते हैं; तो दूसरी ओर उनका काव्य इतना सरल-सरस है कि जो समान्य जनता के हृदय में सुगमता से उतरता चला जाता है। उनके ऐसे ही साहित्य ने देश के नौजवानों में क्रांति की भावना का प्रसार किया था। ऐसी रचनाओं में वे एक जनकवि के रूप में हमारे सम्मुख आते हैं। पर, ‘दिनकर’ जी का काव्य-व्यक्तित्व यहीं तक सीमित नहीं है। उन्होंने किशोर-काव्य और बाल-काव्य भी लिखा है। यह अवश्य है कि परिमाण में ऐसा काव्य अधिक नहीं है तथा इस क्षेत्र में उन्हें अपेक्षाकृत सफलता भी कम मिली है।

बाल-काव्य लिखना कोई बाल-प्रयास नहीं तथा वह इतना आसान भी नहीं। बाल-काव्य के निर्माता का कवि-कर्म पर्याप्त सतर्कता और कौशल की अपेक्षा रखता है। कोई भी प्रगतिशील और स्वस्थ राष्ट्र अपने बच्चों की उपेक्षा नहीं कर सकता। जिस भाषा के साहित्य में बाल-साहित्य का अभाव हो अथवा वह हीन कोटि का हो; तो उस राष्ट्र एवं उस भाषा के साहित्यकारों को जागरूक नहीं माना जा सकता। बच्चे ही बड़े होकर देश की बागडोर सँभालते हैं। वे ही देश के भावी विकास के प्रतीक हैं। उनके हृदय और मस्तिष्क का संस्कार यथासमय होना ही चाहिए।

यह कार्य साहित्य के माध्यम से सर्वाधिक प्रभावी ढंग से होता है। इसके अतिरिक्त साहित्य से बच्चों का स्वस्थ मनोरंजन भी होता है। वह उनकी मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की भी पूर्ति करता है। इससे उनके व्यक्तित्व का समुचित विकास होता है; जो अन्ततोगत्वा राष्ट्र अथवा मनुष्यता को सबल बनाने में सहायक सिद्ध होता है।
जो कवि सामाजिक उत्तरदायित्व के प्रति सचेत हैं तथा जो अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित हैं, प्रतिबद्ध हैं, वे बाल-साहित्य लिखने के लिए भी अवकाश निकाल लेते हैं। विश्व-कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर जैसे अतल-स्पर्शी रहस्यवादी महाकवि ने कितना बाल-साहित्य लिखा है; यह सर्वविदित है। अतः ‘दिनकर’ जी की लेखनी ने यदि बाल-साहित्य लिखा है तो वह उनके महत्त्व को बढ़ाता ही है।

बाल-काव्य विषयक उनकी दो पुस्तिकाएँ प्रकाशित हुई हैं —‘मिर्च का मजा’ (‘ज़ा' नही!) और ‘सूरज का ब्याह’। ‘मिर्च का मजा’ में सात कविताएँ और ‘सूरज का ब्याह’ में नौ कविताएँ संकलित हैं।
’मिर्च का मजा’ में एक मूर्ख काबुलीवाले का वर्णन है, जो अपने जीवन में पहली बार मिर्च देखता है। मिर्च को वह कोई फल समझ जाता है —

सोचा, क्या अच्छे दाने हैं, खाने से बल होगा,
यह जरूर इस मौसिम का कोई मीठा फल होगा।

और जब कुँजड़िन उससे कहती है कि ‘यह तो सब खाते हैं, तो वह चार आने की सेर भर लाल मिर्च ख़रीद लेता है और नदी के किनारे बैठ कर खाने लगता है। खाते ही —

मगर, मिर्च ने तुरंत जीभ पर अपना जोर दिखाया,
मुँह सारा जल उठा और आँखों में जल भर आया।

यहाँ तक तो ठीक था। पर, चूँकि उस मूर्ख काबुलीवाले ने इन मिर्चों पर चार आने ख़र्च किये हैं; इसलिए वह उन्हें फेंकना ठीक नहीं समझता। उन्हें खाकर ख़त्म कर देना चाहता है। उसका स्पष्ट कथन है कि मैं मिर्च नहीं —’खाता हूँ पैसा’ !

इस प्रकार यह कविता हास्य का सृजन करती है। हास्य का आलम्बन एक मूर्ख व्यक्ति (काबुलीवाला) है। निस्संदेह लोगों की मूर्खता पर हम बराबर हँसते हैं। लेकिन प्रस्तुत कविता मे जिस मूर्ख का चित्रण किया गया है; वह अविश्वसनीय है। सम्भवतः ‘पैसा खाने’ की बात पर यह प्रचलित गप्प मात्र है। यह कविता संकलन की प्रथम व प्रमुख कविता है। इसी कविता के शीर्षक पर पुस्तक का नामकरण हुआ है।

मिर्च को देखकर काबुलीवाला कहता है-‘क्या अच्छे दाने हैं।’ यहाँ मिर्च का आकार भी दृष्टव्य है ! ‘खाने से बल होगा’ का अर्थ कि इन ‘दानों’ के खाने से शक्ति बढे़गी ! ‘मौसिम’ शब्द कवि के अरबी के ज्ञान का परिचायक है; जबकि ‘मज़ा’ और ‘ज़रूर’ कवि को रुचिकर नहीं ! ‘छीमी’ फल को कहते हैं; यह कितने बच्चों को मालूम है ? और फिर चवन्नी की एक सेर लाल मिर्च ! ज़ाहिर है, यह कविता उस समय की लिखी हुई है जब चीजें बहुत सस्ती रही होंगी।
(कविताओं के अन्त में रचना-काल अंकित नहीं है; यद्यपि कुछ कविताओं की विषय-सामग्री से स्पष्ट होता है कि वे स्वातन्त्रोत्तर काल की हैं।)

‘खर्च हुआ जिस पर उसको क्यों बिना सधाये छोड़ें ?' — में ‘सधाये’ स्थानिक प्रयोग है।
‘पढ़क्कू की सूझ’ की विषय-सामग्री चिर-परिचत है; मात्र उसे पद्यबद्ध किया गया है। इस कविता में ‘मंतिख’ शब्द का प्रयोग है; यद्यपि अन्त में टिप्पणी दे दी गयी है कि ‘मंतिख' तर्कशास्त्र को कहते हैं।

‘चूहे की दिल्ली यात्रा’ और ‘अंगद कुदान’ बाल-मनोविनोद के सर्वाधिक उपयुक्त हैं। ‘अंगद कुदान’ के भी कुछ शब्द-प्रयोग चिन्त्य है; यथा-पंघत (पंगत), आधी नीबू (आधा नीबू), मुस्की (स्थानिक प्रयोग), पिहकारी (पक्षियों के लिए प्रयुक्त होने वाला शब्द; वानरों के लिए प्रयुक्त ) आदि।

‘कर्र करो या कुर्र काला-काला एक न छोडूँगा’ भी ’मिर्च का मजा’ की तरह अविश्वसनीय है। इसमें एक मूर्ख मोगल (मुग़ल) का वर्णन है। भले ही अँधेरा हो; पर जामुन के स्थान पर जीवित भ्रमर को खाते रहना अद्भुत है। काबुलीवाला और मुग़ल की जो जातीय विशेषताएँ बतायी गयी हैं, वे अतिरंजनापूर्ण हैं।

‘मामा के लिए आम’ शीर्षक कविता ‘चूहे की दिल्ली यात्रा’ के समान बाल-विनोद की रचना है। इसमें गीदड़ (गीदड़ पांडे !) की चतुराई बतायी गयी है। गीदड़ झूठ बोलने में सफल हो जाता है। झूठ बोलने के कारण उसकी दुर्गति नहीं होती। अतः शैक्षिक प्रभाव बच्चों के अनुकूल नहीं। वे भी गीदड़ के समान चतुर बनना चाहेंगे; झूठ बोलेंगे। गीदड़ को तो झूठ बोलने में लाभ रहा; पर हो सकता है, बच्चों को इसका कुफल भोगना पड़े।

‘झब्बू का परलोक सुधार’ एक मूर्ख चेले का आख्यान है। बिना सोचे-समझे आँखें बंद करके अनुकरण करने वालों पर व्यंग्य। इस प्रकार ‘मिर्च का मजा’ की अधिकांश कविताओं के पात्र मूर्ख हैं तथा इन कविताओं से मात्र हास्य की सृष्टि होती है। बालकों का मात्र मनोरंजन इस पुस्तिका से सम्भव है।

'सूरज का ब्याह’ की भी अधिकांश कविताएँ ‘मिर्च का मजा’ की कविताओं के समान हैं। सूरज और उषा के विवाह का प्रंसग ‘सूरज का ब्याह’ में है। इसमें एक वृद्ध मछली का कथन पर्याप्त तर्क-संगत है —

अगर सूर्य ने ब्याह किया, दस-पाँच पुत्र जन्मायेगा
सोचो, तब उतने सूर्यों का ताप कौन सह पायेगा ?
अच्छा है, सूरज क्वाँरा है, वंशहीन, अकेला है,
इस प्रचण्ड का व्याह जगत की खातिर बड़ा झमेला है।

‘मेमना और भेड़िया’ में सुरक्षित स्थान पर खड़े मेमने की चुहलबाज़ी बच्चों के लिए रोचक है। ‘चाँद का कुर्ता’ शीर्षक कविता चन्द्रमा की कलाओं को लक्ष्य करके लिखा गया है। ‘खरहा और कुत्ता’ में ’खरहा’ के स्थान पर ’खरगोश’ का प्रयोग उचित था; क्योंकि बच्चे खरगोश से परिचित हैं। खरहे से नहीं। ‘घने झुरमुट’ को ‘घनी झुरमुट’ लिखा गया है। पर, प्रस्तुत कविता किंचित उपदेशप्रद भी है; जो एक तथ्य की बात बच्चों के सम्मुख रखती है। कुत्ता खरगोश को पकड़ नहीं पाता। इस पर कुत्ते का कथन ध्यान देने योग्य है —

मैं तो दौड़ रहा था केवल दिन का भोजन पाने
लेकिन, खरहा भाग रहा था अपनी जान बचाने,
कहते हैं सब शास्त्र, कमाओ रोटी जान बचाकर।
पर, संकट में प्राण बचाओ सारी शक्ति लगाकर।

‘ज्योतिषी तारे गिनता था’ का पात्र फिर वही मूर्ख व्यक्ति है। तारे गिनने वाला एक मूर्ख ज्योतिषी कुएँ में गिर पड़ता है। इसलिए ‘चलो मत आँखें मीचे ही, देख लो जब तब नीचे भी’।'चील का बच्चा’ में चील के बच्चे के ऊधम का उल्लेख है। पर, यह कविता हास्य-विनोद की न होकर कुछ करुण हो गयी है। चील का बच्चा बीमार है। अनेक दवाइयाँ दी गयीं, पर वह ठीक नहीं हुआ। किसी देवता के आशीष की उसे कामना है ; पर कोई देवता उसे आशीष देनेवाला नहीं। क्योंकि —

माँ बोली, ‘ऊधमी ! कहाँ पर जाऊँ मैं !
कौन देवता है जिसको गुहराऊँ मैं !
किस चबूतरे पर चोंच तूने मारी !
चंगुल से तूने ध्वजा किसकी फाड़ी !
किसकी थाली के प्रसाद का मान रखा ?
तूने किसके पिंडे का सम्मान रखा ?
किसी देव के पास नहीं मैं जाऊँगी,
जाऊँ तो केवल उलाहना पाऊंगी।
रूठे हैं देवता, कोई चारा है
ले ईश्वर का नाम कि वही सहारा है।

इस कविता में भी ‘घोंसले’ के लिए ‘खोंते’ शब्द का प्रयोग किया है; जिसे बच्चों का परिचित शब्द नहीं कहा जा सकता।
‘चतुर सूअर‘ में सुअर की चुतराई मूर्खता का पर्याय है। वह एकांत में जब-तब अपने दाँत पजा लेता है; क्योंकि —

हँसकर कहा चतुर सूअर ने, ''दुश्मन जब जायेगा
दाँत पजाने की फुरसत तो मुझे नहीं दे पायेगा।
इसलिए, जब तक खाली हूँ दाँत पजा धर लेता हूँ,
पेट फाड़ने की दुश्मन का तैयारी कर लेता हूँ !''

पर, इस रचना में पजाने की क्रिया स्पष्ट नहीं हो पाती। कवि ने लिखा; ''पजा रहा था दाँत, पजाते छुरियाँ जैसे शानों पर।'' ’पजाते’ से सम्भवतः कवि का अभिप्राय दाँतों की धार तेज़ करने से है !!
‘बर्र और बालक’ का सार निम्नलिखित उपदेश है —

माता बोली, लाल मेरे, खलों का स्वभाव यही,
काटते हैं कोमल को, डरते कठोर से।
काटा बर्र ने कि तूने प्यार से छुआ था उसे,
काटता नहीं जो दबा देता जरा जोर से।

कविता की भूमिका में घटना का उल्लेख कर दिया है ; जो इस प्रकार है —
''अल्लाउद्दीन खिलजी ने जब चित्तौर पर कब्जा कर लिया, तब राणा अजय सिंह अपने भतीजे हम्मीर और बेटों को लेकर अरावली पहाड़ पर कैलवारा के किले में रहने लगे। राजा मुंज ने वहीं उनका अपमान किया था; जिसका बदला हम्मीर ने चुकाया। उस समय हम्मीर की उम्र सिर्फ ग्यारह साल की थी। आगे चलकर हम्मीर बहुत बड़ा योद्धा निकला और उसके हठ के बारे में यह कहावत चल पड़ी कि ‘तिरिया तेल हमीर हठ चढ़ै न दूजी बार।’
इस रचना में ‘दिनकर’ जी का ओजस्वी-तेजस्वी स्वरूप झलका है; क्योंकि इस कविता की विषय-सामग्री उनकी रुचि के अनुरूप थी। ’बालक हम्मीर’ कविता राष्ट्रीय गौरव से परिपूर्ण रचना है। इस कविता की निम्नलिखित पंक्तियाँ पाठक के मन में गूँजती रहती हैं —

धन है तन का मैल, पसीने का जैसे हो पानी,
एक आन को ही जीते हैं इज्जत के अभिमानी।

(आलेख प्रस्तुति: डा० महेंद्रभटनागर)

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