प्यार मांगता हूँ!
धुंधली हुई दिशाएँ छाने लगा कुहासा,
कुचली हुई शिखा से आने वाला धुआं-सा.
कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है,
मुंह को छिपा तिमिर में क्यों तेज रो रहा है?
दाता, पूराकर मेरी, सदीप्ती को जिला दे,
बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे।
प्यारे स्वदेश के हित अंगार माँगता हूँ,
चढ़ती जवानियों का श्रृंगार माँगता हूँ.
बेचैन हैं हावायें, सब ओर बेकली है,
कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है?
मंझधार है, भंवर है या पास है किनारा?
यह नाश आ रहा या सौभाग्य का सितारा?
आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा,
भगवान्, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा.
तं-बेधिनी किरण का संधान माँगता हूँ,
ध्रुव की कठिन घड़ी में पहचान माँगता हूँ.
आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुई है,
बल-पुंज केसरी की ग्रीवा झुकी हुई है.
अग्निस्फुलिंग रज का, बुझ ढेर हो रहा हैं,
है रो रही जवानी, अंधेर हो रहा है.
निर्वाक है हिमायल, गंगा दरी हुई है,
निस्तब्धता निशा की दिन में भरी हुई है.
पंचास्य-नाद भीषद, विकराल माँगता हूँ,
जड़ता-विनाश को फ़िर भूचाल माँगता हूँ.
मन की बंधी उमंगें असहाय जल रही हैं,
अरमान-आरजू की लाशें निकल रही हैं,
भीगी-खुली पलों में रातें गुजारते हैं,
सोती वसुंधरा जब तुमको पुकारते हैं.
इनके लिए कहीं से निर्भीक तेल ला दे,
पिघले हुए अनल का इनको अमृत पिला दे,
उन्माद, बेकली का उत्थान माँगता हूँ,
विस्फोट माँगता हूँ, तूफ़ान माँगता हूँ।
आंसू-भरे द्रगों में चिन्ग्रारियाँ जला दे,
मेरे श्मशान में आ श्रंगी ज़रा बजा दे.
फ़िर एक तीर सीनों के आर-पार कर दे,
हिमशीत प्राण में फ़िर अंगार स्वच्छ भर दे.
आमर्ष को जगाने वाली शिखा नयी दे,
अनुभूतियाँ ह्रदय में दाता, अनलमयी दे.
विष का सदा लहू में संचार माँगता हूँ।
बेचैन जिंदगी का मैं प्यार माँगता हूँ.
ठहरी हुई तरी को ठोकर लगा चला दे,
जो राह हो हमारी उस पर दिया जला दिए.
गति में प्रभंजनों का आवेग फ़िर सबल दे,
इस जांच की घड़ी में निष्ठां कड़ी अचल दे.
हम दे चुके लहू हैं, तू देवता विभा दे,
अपने अनल-विशिख से आकाश जगमगा दे।
प्यारे स्वदेश के हित वरदान माँगता हूँ,
तेरी दया, विपद में भगवान्, माँगता हूँ।
- आग की भीख शीर्षक से लिखी इस कविता में दिनकर ने कई प्रश्न उठाये हैं।
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें