मंगलवार, 23 सितंबर 2008

बयार अब तक बाक़ी है!

उल्टा तीर पत्रिका दिनकर आप सभी सुधि पाठकों को साधुवाद के साथ अर्पित हैं। आप सभी का रचनात्मक सहयोग ही हमारी सच्ची ताक़त हैउल्टा तीर पत्रिका का यह दूसरा अंक हमारा छोटा सा प्रयास है उम्मीद कि आप सभी को यह प्रयास पसंद आएगा

आभार साहित
अमित के. सागर
उल्टा तीर



तुम लोग
उन लोगो को
अपने घर का दिया
अपनी बाती
किस ख़ुशी में देते हो
किस लालच में देते हो
और क्यों देते हो?

जिन लोगों की सामर्थ्य
एक पूरे गाँव को
एक पूरे शहर को
रौशन कर देने की है

मगर
वो
अँधेरा तारी होते ही
बंद कर लेते हैं
अपने घरों की खिड़कियाँ
अपने घरों के दरवाज़े
जिन्हें मतलब नहीं रहता
तुम्हारी अँधेरा तारी रातों से
तुम्हारी रातों के हादसों से

जिनसे मिलकर मगर
रौशन हो सकता है
सारा ज़हां

लेकिन ऐसा होता नहीं!
फ़िर क्यों नहीं
तुम लोग ही
निकल पड़ते
एकत्रित होके
मशाल बनके
अँधेरा तारी में
ख़ुद ही अपनी लौ को लेके
क्योंकि तुम्हारे अन्दर
सबको रौशन करने की
बयार अब तक बाकी है!

3 टिप्पणियाँ:

karmowala 4 अक्टूबर 2008 को 9:23 am बजे  

अँधेरा सत्य भी है और जरूरी भी आपकी रचना इस सुंदर अंधेरे का इस्तेमाल उन अमीर और गरीब लोगो के संदर्भ मे करती है जो मेरी आत्मा के करीब लगा और ये सोचने पर विवश भी हुआ की आख़िर हम गरीब क्यों अपने आँगन का दिया भी उस लालची को क्यो दे देते है जो उसको केवल अपने फायदे के लिए इतेमाल करता है

बेनामी 5 नवंबर 2008 को 11:21 pm बजे  

amit ,kya baat hai.par andhero se nikalo mere dost.

Prakash Badal 29 दिसंबर 2008 को 8:29 am बजे  

वाह वाह वाह बस वाह अच्छी कविता

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