मंगलवार, 23 सितंबर 2008

हमारे ह्रदय की चेतना की चिंगारी: मातृभाषा हिन्दी

(दिल्ली दूरदर्शन में कार्यरत लैंसमेन प्रेम परिहार का अधिकांश समय तस्वीरों , सामयिक हलचल को कैद करने में बीतता हैइतनी व्यस्तता के बाद भी वे लेखन और समाज सेवा के कार्यों में भी उतने ही सक्रिय हैंहिन्दी कवि औरलेखक के रूप में भी उनकी प्रसिद्धि हैप्रेम परिहार हिन्दी को ह्रदय की चेतना की चिंगारी मानते हैं । )


हिन्दी है सौभाग्य देश का, हिन्दी हमको प्यारी है
हर भाषा से सरल-सुद्रढ़, यह हिन्दी न्यारी है
हिन्दी को आगे लाने का अभियान हमारा जारी है
शशी श्यामला पुण्यभूमि यह, भारत माँ को प्यारी है
राष्ट्रभाषा मात्रभाषा हिन्दी हमारे मानस की संवेदनाओं में गुंथी है. जीवन के प्रत्येक चरण में, मानवीयता के प्रत्येक छंद में ह्रदय की मिठास अपनी मात्रभाषा से ही उजागर होती है. समय की गणना भी हमारी भाषा में वैज्ञानिक रीति से सार्थकता पाकर हुई है. परम्पराओं की गहरी नींव हमारी सनातन है जिसे समय-समय पर नवीनता प्रदान की है हमारे चिंतकों, विचारकों, साहित्यकारों, पत्रकारों एवं जनमानस के चितेरों ने. इस वसुधा के ह्रदय भारतवर्ष में जीवन पाना ही जीवन की सार्थकता है. विदेशी विचारकों ने भी समय-समय पर विवेचना की है कि धरती की ऊपर भारतदेश को प्रकृति ने अपनी सर्वश्रेष्ठ विरासत सौंपी है. जन-जन इस देश की विरासत से अपनी मानवीयता का परिचय देता है. हिन्दी एक सेतु का कार्य करती है किसी को भी जोड़ने में, आजादी की मिशाल एक कोने से दूसरे कोने तक हिन्दी में ही सार्थकता प्राप्त कर सकी.

आजादी की प्राप्ति से लेकर आजतक का सफर सुहाना रहा है, तकनीक ने विकास किया है, विज्ञान ने हमें सुविधाओं का भण्डार सौंप दिया है. जीने के लिए हमारे पास असीमित संसाधन प्राप्त हैं. परन्तु बसुधैव कुटुंबकम का नारा आज किताबे या यदा-कडा समारोहों में मात्र उच्चारित करने मात्र के लिए प्रयोग में लाया जाता है. जिंदगी भीड़ में अकेली ही होती जा रही है. कलंक की छाया स्पष्ट दिखाई दे रही है, स्वाभिमान का अस्तित्व समाप्त हो गया है. हम अपन घर में ही अकेलापन महसूस करते हैं. संचार की प्रक्रिया में मीडिया ने अपने अनेकों मापदंड स्थापित किए हैं. हमारा देश विभिन्नताओं को लेकर असीमित संभावनाओं को उद्घाटित करता है. हिन्दी संवाहक का कार्य सदैव करती रहती है. परन्तु हिन्दी के प्रति प्रेम हमारी नयी पीढी एवं अमीर वर्ग से बिल्कुल विदा हो गया है. मैं व्यक्तिगत स्टार पर मानता हूँ कि हमारे देश में जन्म से लेकर पालने बढे होने के प्रक्रिया से गुज़रना सौभाग्यशाली है क्योंकि यहाँ घर की अपनी निजी भाषा है हिन्दी. हिन्दी हमारी मात्रभाषा है और अन्तराष्ट्रीय स्तर पर हम स्वाभिक रूप से 'आंग्ल' भाषा का प्रयोग कर लेते हैं.
मानवीय चेतना की चिंगारी हिन्दी अपन ही घर में पराई होती जा रही है. महानगरीय लोग हिन्दी बोलना अपना दुर्भाग्य मानते हैं. बड़े होने का गर्भ करने वाले भी हिन्दी को अपने कार्य के रूप में प्रयोग में नहीं लाते. प्रगति के पथ पर बढ़ने वाले हमारे हिन्दी सिनेमा के महानायक, नायक एवं सह्नायाक इत्यादी चर्तिर को चलचित्रों में अभिनय करने वाली भी हिन्दी बोलने में हिचकिचाहट महसूस करते हैं. एक तरफ़ सारा विश्व हिन्दी के बड़े बाजार की ओर आकर्षित है वहीं दूसरी ओर हिन्दी के ऊपर जीवन यापन करने वाले उसे अपनी जननी मानने में तुच्छता का अनुभव करते हैं. मेरा भारत देश के ही नहीं विषय युवाओं से विनर्म निवेदन है कि हिन्दी को अपने कार्य व्यवहार, बोलचाल एवं लेखन में सर्वाधिक स्थान प्रदान करें. यह आपको स्वाभिमानी बनाएगा. गीता की यह उक्ति मुझे पूर्णतः सार्थक लगती है "स्वधर्मं निधन श्रेय, पर्धर्मों भयावह"

2 टिप्पणियाँ:

Unknown 5 अक्टूबर 2008 को 8:51 am बजे  

हिन्दी का आपके जैसा वर्णन कोई चितेरा ही कर सकता है आपके द्वारा लिखा लेख सराहनीय है
धन्यवाद
ये मशाल है जो जलती रहेगी ........

karmowala 22 अक्टूबर 2008 को 9:52 am बजे  

बहुत -बहुत अच्छी तरह से लिखा हुआ जितनी भी तारीफ़ की जाए कम ही है लेकिन हिन्दी के लिए और अधिक गंभीर प्रयाश की जरूरत है जो हम सब मिलकर ही कर सकते है

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