अपने ही देश में वजूद ढूँढती हिन्दी
- ताराचन्द्र गुप्त 'मीडिया गुरू'
यह स्वीकारने में कोई अतिशयोक्ती नहीं कि अंग्रेजी जानने वालों को कोई नुक्सान नहीं हो रहा है लेकिन अंग्रेजी नहीं जानने वालों का नुक्सान है. गाँव, कस्बों में बैठे लोग जो हिन्दी माध्यम से पढ़ाई कर रहे हैं या शहर के लाखों लोग जो अन्ग्रेज़े की पहुँच से बाहर हैं, वे भुगत रहे हैं अंग्रेजी न जानने का दर्द. जीवन के हर मोड़ पर अंग्रेजी उन्हें लज्जित कर रही है.
प्रश्न यह उठता है कि दोहरा मानदंड क्यो? यदि अंग्रेजी हर क्षेत्र के लिए निर्यात बन चुकी है तो हम खुलेआम स्वीकारें और यहे हिन्दी के प्रति सच्ची आस्था है तो अंग्रेजी को जड़ से उखाड़ फेंकने का काम अपने घरों से शुरू करें. दोहरी नीति से या या कहें कि दोगली नीति से हम देश के बहुत बड़े जन-समूह के साथ मजाक कर रहे हैं. येसे लोग जिन्हें दोनों भाषाओं पर एकाधिकार है कि वे हिन्दी की तरफदारी चाहे कितनी भी करें पर जो अंग्रेजी नहीं जानते उनकी तो मिट्टी पलीद (ख़राब) है. अंग्रेजी के बिना काम कठिन हो गया है, यही कारण है कि राष्ट्रभाषा को महत्त्व देने की जितनी कोशिश की जा रही है, अंग्रेजी उतनी ही तेज़ी से आगे बढ़ती जा रही है.
अंग्रेजी जानने वालों का प्रतिशत चाहे जितना कम हो पर येसे ही लोगों की साख आज हर जगह है. विश्व में येसे ढेरों देश हैं जहाँ अंग्रेजी का नामोनिशान नहीं पर वे विकसित देशों की श्रेणी में अपना नाम दर्ज करा चुके हैं. भारत में अंग्रेजी इतनी महत्वपूर्ण हो चुकी है कि कभी-कभी यह सोचना पड़ता है कि राष्ट्रभाषा हिन्दी है या अंग्रेजी. यहाँ अंग्रेजी के सफाए की गुंजाइशें नहीं लगती. इसके कई कारण हैं, लगभग सारी महत्वपूर्ण किताबें अंग्रेजी में उपलब्ध हैं. विभिन्न संस्कृतियों व भाषायों को जोड़ने में अंग्रेजी अपनी भुमिका निभा रही है. हिन्दी की वकालत करने वाले अधिकाँश लोग अपने जीवन में अंग्रेजी की मान्यता देते हैं. उच्च शिक्षा विदेश में पढ़ाई व नौकरी की चाह ग्लैमरस जीवन व पक्षिमी सभ्यता के आकर्षण ने अंग्रेजी को फलने-फूलने का भरपूर मौका दिया है. आज अंग्रेजी एक आवश्यकता बन चुकी है. यही इस सचाई को हम ईमानदारी से स्वीकार कर लें और अंग्रेजी की मौजूदगी में ही हिन्दी को प्रतिष्ठित करने का संकल्प लें तो यह साहसिक कार्य होगा.
येसे लोग गिने-चुने हैं. जिन्होंने अंग्रेजी के विद्वान् रहते हुए हिन्दी को दिल से स्वीकार किया है. येसे लोगों में हरिवंश राय बच्चन, अज्ञेय, फिराक गोरखपुरी का नाम आदर के साथ लिया जाता है. हरिवंश राय बच्चन व अज्ञेय अंग्रेजी के प्रोफेसर होते हुए भी आजीवन हिन्दी की सेवा करते रहे. फिराक गोरखपुरी भी अंग्रेजी के प्रोफेसर थे लेकिन उर्दू साहित्य में उनका नम अमर हो गया. उर्दू व हिन्दी एक दूसरे के बहुत करीब है इसलिए फिराक साहित्यकारों की फेहरिस्त में ऊंची हस्ती के रूप में स्वीकार गए. पूर्व प्रधानमन्त्री श्री अटल विहारी बाजपेयी भी अंग्रेजी के प्रकांड विद्वान् हैं पर उनके दिल में हिन्दी के प्रति सच्ची आस्था है. चाहे यूएनओ का भाषण हो या अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के भारत आगमन का असर; इन्होने हिन्दी में अपनी बात कर तामाम देशी व विदेशी लोगों को अचरज में दाल दिया. ठीक इसके विपरीत आज येसे लोगों की भरमार है जो हिन्दी के अच्छे जानकर होते हुए बेवक्त अंग्रेजों का दामन थामे रहते हैं. हमारे संसद में हिन्दी भाषी लोग भी आपनी बात अंग्रेजी में ही कहना चाहते हैं. हिन्दी फ़िल्म उद्योग के लोगों को ही लें, वे रोटी तो हिन्दी की खाते हैं पर हर वक्त उनकी जुबान पर अंग्रेजी चढी रहती है. मीडिया वाले भी इस मामले में पीछे नहीं हैं. हिन्दी भाषी से भी अंग्रेजी में पूछ-पूछ कर नाक में दम कर देते हैं. सिक्षा जगत में अंग्रेजी का कितना महत्त्व है कौन नहीं जानता पर हिन्दी व संस्कृत की कक्षा पब्लिक स्कूल में भी शिक्षकगण बच्चों से अंग्रेजी में बात करते हैं तो सचना पढता है कि आख़िर हम कहाँ जा रहे हैं और क्या साबित करना चाहते हैं? अंग्रेजी को एक आवश्यकता के रूप में स्वीकार भी लें तो इसका अर्थ यह नहीं कि इस कदर हिन्दी की उपेक्षा की जाए.
सच पूछा जाए तो हम हिन्दी को नहीं स्वंय को उपेक्षित कर रहे हैं. यह भारत का दुर्भाग्य रहा है कि यहाँ अंग्रेजों ने लंबे समय तक जबरन राज किया और हामरे दिलो दिमाग पर अंग्रेजों की गहरी छाप छोड़ गए! विदेशी चीज के प्रति चाहे जितने आकर्षण हों, देशी चीज की जगह नहीं ले सकती. हिन्दी में जो आत्मीयता है वह अंग्रेजी में दूर-दूर तक नहीं. जिस दिन हमारी आत्मा इस सत्य को स्वीकारेगी, हम अंग्रेजी बोल कर गौरवान्तित महसूस नहीं करेंगे. विश्व में शायद ही कोई देश हो जो दूसरे मुल्क की राष्ट्रभाषा पर इतना फक्र करता हो!
भारतीय संविधान की धारा ३४३ में यह घोषणा की गयी है कि देवनागरी लिपि में हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा होगी. आगे धारा ३५१ में यह कहा गया है कि संघ सरकार का यह कर्तव्य होगा कि वह हिन्दी के प्रचार का प्रयत्न करे और उसे इस तरह से विकसित करे कि वह भारत की संशिलष्ट संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति की मध्यम बन सके. भारत की जनसँख्या एक अरब से अधिक है. चीन ही एक मात्र एसा देश है जिसके जनसंख्या भारत से जादा है. यह बात काफी स्वाभाविक है कि जिस देश में विभिन्न जाती व सम्प्रदाय निवास करते हैं उनमें भाषाओं का मतभेद होना स्वाभाविक है. संविधान की धारा ३४३ में यह घोषित किया गया है कि संविधान लागी होने की तिथि से १५ वर्ष आगे तक प्रचार-प्रसार व विकास नहीं हो पाया था कि राजकीय कार्यों के लिए इसका प्रयोग किया जा सके. १९५० तक भारत सरकार ने यधपि प्रयत्नों की खानापूर्ति के परन्तु स्तिथि यथावत बनी रही.
आज लगभग ५० करोड़ भारतीय हिन्दी भाषा को जानते हैं और बोल सकते हैं. हिन्दी समझाने वालों की संख्या काफ़ी अधिक है परत्नु यह बड़े खेद की बात है कि हिन्दी का महत्त्व अब धीरे-धीरे गिरता जा रहा है. इसका विकास, संस्कृत और एनी क्षेत्रीय भाषाओं से हुआ है. व्याकरण लचीला होने के कारण इसकी लोकप्रियता में बढोत्तरी हुई है इसमें अन्य भाषाओं के शब्दों, रूपों व शैलियों को पचाने के अद्भुत शक्ती है. विज्ञान तकनीकी ज्ञान व कार्यलाई प्रयोग में यह पूर्णतः समर्थ है. इसका शब्दकोष निरंतर विकसित हो रहा है. भारत की अन्य अनेक भाषों में भी इसी लिपि का व्यवहार किया जाता है. इसी प्रकार हिन्दी की क्षमता अन्य किसी भाषा से कम नहीं है।
1 टिप्पणियाँ:
आपने बहुत ही सुंदर तरीके से लिखा है हिन्दी केवल देश प्रेम की निशानी नही है बल्कि एक जीवन पद्धति है जो भी देश अपने लोगो को मार्तभाषा मे शिक्षा देता है वह कभी भी दुनिया से पिछडे नही सकता
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