सोमवार, 22 सितंबर 2008

अक्षय मन का शिल्प-"कवि को भूल जाओगे "

उल्टा तीर पत्रिका "दिनकर" में हम उदयीमान रचनाकारों की रचनाओं का भी पर्व मना रहे हैं रचना पर्व में अक्षय मन की रचना "कवि को भूल जाओगे "

कुछ शब्द जो पकते रहे मन की असीमित उचाईयो वाले वृक्षों पर
और टूटकर गिरते रहे बिखरते रहे कोरे पड़े उन पन्नो पर

और कलम एक माली था जो इस मन-वृक्ष के शब्द फलो को
एक नया रूप दे उनको संवारता था
जब कल्पनाओं की बारिश होती थी
कुछ यादें जब बादलों में बदलती थी

तब-तब वो मन-वृक्ष झूम उठता खिल उठता
शब्दों को नया जीवन मिलता
एक नई उमंग नई तरंग के साथ शब्दों का विकास होता

और जब संवेदना से सुगन्धित आस्था पुष्प मन-वृक्ष पर खिलते
तब ये पुष्प अपनी महक से सबको सुगन्धित-आकर्षित करते

सिलसिला चलता रहा मन-वृक्ष परन्तु अब बुढा हो गया
लेकिन समय के साथ-साथ शब्द-फल और रसीले हो गए
वो आस्था फूल और भी सुगन्धित हो गए
लेकिन वो माली-रुपी कलम थक चुका था हाथ कांपते थे
किन्तु कल्पनाओं की बारिश आज भी उतनी ही प्रबल थी
वो यादें भी बादल का रूप ले मानसपटल पर छाई हुई थी

लेकिन वो वृक्ष आंतरिक रूप से सम्पूर्ण था
और बाहर से समय के साथ कमजोर हो रहा था

उस मन वृक्ष ने हमारे लिए जीवन भर संघर्ष किया
जीवन को नया रूप नई सोच मिली शब्द-फल के सेवन से

फिर भी तुम स्वार्थी बन गए
कटू शब्दों से बचाया नई सीख दी छाया दी क्या तुम
उस आँचल को,उस मर्म को, उस कवि को भूल जाओगे?

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