मंगलवार, 23 सितंबर 2008

खोल दो!

  • 'साआदत हसन मंटो' की इक़ नायब रचना 'खोल दो'

अमृतसर से स्पेशल ट्रेन दोपहर दो बजे चली और आठ घंटे के बाद मुगलपुरा पहुँची. रास्ते में कई आदमी मारे गए, बेशुमार ज़ख्मी हुए और कुछ इधर-उधर भटक गए.

सुबह दस बजे कैंप की ठंडी जमीन पर जब सिराजुद्दीन ने आँखें खोलीं और अपने चरों तरफ़ मर्दों, औरतों और बच्चों का एक तूफानी समुद्र देखा तो उसकी सोचने-समझने की शक्ती और भी कमज़ोर हो गई. वह देर तक गंदले आसमान को टकटकी बांधे देखता रहा. यौं तो कैंप में हर तरफ़ शोर मचा था लेकिन बूदे सिराजुद्दीन के कान जैसे बंद थे, उसे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था. कोई उसे देखता तो यह ख्याल करता कि वह किसी गहरी फ़िक्र में गर्क है मगर एसा नहीं था. उसके होश-हवास सुन्न थे. उसका सारा वजूद शून्य में लगा हुआ था.

गंदले आसमान की तरफ़ बगैर किसी इरादे के देखते-देखते सिराजुद्दीन की निगाहें सूरज से टकराईं. तेज़ रोशनी उसके वजूद के रग व् रेशे में उतर गईं. लूट, आग, भागम-भाग, स्टेशन, गोलियाँ, रात और सकीना. सिराजुद्दीन एकदम उठ खड़ा हुआ और पागलों की तरह उसने अपने चारों तरफ़ फैले हुए इंसानों के समुद्र को खंगालना शुरू किया.

पुरे तीन घंटे वह 'सकीना, सकीना' पुकारता कैंप की खाक छानता रहा. मगर उसे अपनी जवान इकलौती बेटी का कोई पता न मिला. चरों तरफ़ एक धांधली-सी-मची थी- कोई अपना बच्चा ढूंड रहा था, कोई माँ, कोई बीबी और कोई बेटी. सिराजुद्दीन थक-हारकर एक तरफ़ बैठ गया और स्मरण-शक्ती पर जोर देकर सोचने लगा कि सकीना उससे कब और कहाँ जुदा हुई लेकिन सोचते-सोचते उसका दिमाग सकीना की माँ की लाश पर जम जता, जिसकी सारी अंतडियां बाहर निकली हुई थीं. उससे आगे वह और कुछ न सोच सकता.

सकीना की माँ मर चुकी थी. उसने सिराजुद्दीन की आँखों के सामने दम तोडा था लेकिन सकीना कहाँ थी जिसके बारे में उसकी माँ ने मरते हुए कहा था, 'मुझे छोडो और सकीना को लेकर जल्दी यहाँ से भाग जाओ'.

सकीना उसके साथ ही थी. दोनों नंगे पांव भाग रहे थे. सकीना का दुपट्टा गिर पड़ा था. उसे उठाने के लिए उसने रुकना चाह था मगर सकीना ने चिल्लाकर कहा था, 'अब्बाजी, छोडिये' लेकिन उसने दुपट्टा उठा लिया था. यह सोचते-सोचते उसने अपने कोट की उभरी हुई जेब की तरफ़ देखा और उसमें हाथ डालकर एक कपड़ा निकला. सकीना का वही दुपट्टा था लेकिन सकीना कहाँ थी?

सिराजुद्दीन ने अपने थके हुए दिमाग पर बहुत ज़ोर दिया मगर वह किसी नतीजे पर न पहुँच सका. क्या वह सकीना को अपने साथ स्टेशन तक लाया था? क्या वह उसके साथ ही गाडी में सवार थी.? रास में जब गाडी रोकी गई थी और बलवाई अन्दर घुस आए थे तो क्या वह बेहोश हो गया था, जो वे सकीना को उठा कर ले गए?

सिराजुद्दीन के दिमाग में सवाल ही सवाल थे, जवाब कोई नहीं था. उसको हमदर्दी की ज़रूरत थी लेकिन चरों तरफ़ जितने भी इंसान फैले हुए थे सबको हमदर्दी की ज़रूरत थी. सिराजुद्दीन ने रोना चाह मगर आंखों ने उसकी मदद न की. आंसू जाने कहाँ गायब हो गए थे?

छह रोज़ के बाद जब होश-हवास किसी कदर दुरुस्त हुए तो सिराजुद्दीन उन लोगों से मिला जो उसकी मदद करने के लिए तैयार थे. आठ नौज़वान थे जिनके पास अपनी लारी थी, बन्दूक थीं. सिराजुद्दीन ने उन्हें लाख-लाख दुआएं दीं और सकीना का हुलिया बताया, 'गोरा रंग है और बहुत ही खुबसूरत है, मुझ पर नहीं अपनी माँ पर थी. उम्र सत्रह बरस के करीब है, आँखें बड़ी-बड़ी, बाल स्याह, दाहिये गाल पर मोटा-सा तिल. मेरी इकलौती बेटी है. दूंद लाओ, तुम्हारा, खुदा भला करेगा.' रजाकार (स्वयंसेवक) नौजवानों ने बड़े ज़ज्बे के साथ बुडे सिराजुद्दीन को यकीन दिलाया कि अगर उसकी बेटी जिंदा हुई तो चंद ही दिनों में उसके पास होगी.

आठों नौज़वानों ने कोशिश की. जान हथेलियों पर रखकर वे अमृतसर गए. कई औरतों, कई मर्दों और कई बच्चों को निकल-निकलकर उन्होंने सुरक्षित स्थानों पर पहुँचाया. दस रोज़ गुज़र गए मगर उन्हें सकीना कहीं न मिली. एक रोज़ वे इसी खिदमत के लिए लारी पर अमृतसर जा रहे थे कि छरहरे के पास सड़क पर उन्हें एक लडकी दिखाई दी. लारी की आवाज़ सुनकर बह बिदकी और उसने भागना शुरू कर दिया. रजाकारों ने मोटर रोकी और सब-के-सब उसके पीछे भागे. एक खेत म में उन्होंने लडकी को पकड़ लिया. देखा तो बहुत खुबसूरत थी. दाहिने गाल पर मोटा तिल था. एक लड़के ने उससे कहा, "घबराओ नहीं! क्या तुम्हारा नाम सकीना है?"

लडकी का रंग और भी ज़र्द हो गया. उसने कोई जवाब नहीं दिया लेकिन जब तमाम लड़कों ने उसे दम-दिलासा दिया तो उसकी दहशत दूर हुई और उसने माँ लिया कि वह सिराजुद्दीन की बेटी सकीना है.

आठ रजाकार नौज़वानों ने हर तरह सकीना की दिलजोई की. उसे खाना खिलाया, दूध पिलाया और लारी में बिठा दिया. एक ने अपना कोट उतारकर उसे दे दिया क्योंकि दुपट्टा न होने के कारण वह बहुत उलझन महसूस कर रही थी और बार-बार बाहों से अपने सीने को दंकने की असफल चेष्टा कर रही थी.

कई दिन गुज़र गए. सिराजुद्दीन को सकीना की कोई ख़बर नहीं मिली. वह दिनभर मुख्तलिफ कैंपों और दफ्तरों के चक्कर काटता रहा लेकिन कहीं से भी उसकी बेटी का पता न चला. रात को वह बहुत देर तक उन रजाकार नौज़वानों की कामयाबी के लिए दुआएं माँगता रहता, जिन्होंने उन्हें यकीन दिलाया था कि अगर सकीना जिन्दा हुई तो चंद ही दिनों मिएँ वे उसे दूंद निकालेंगे. एक रोज़ सिराजुद्दीन ने कैंप में उन नौजवान रजाकारों को देखा. वे लारी में बैठे थे. सिराजुद्दीन भागा-भागा उनके पास गया. लारी चलने ही वाली थी कि उसने पूछा, " बेटा, मेरी सकीना का पता चला?" सबने इक्जवान होकर कहा, चल जाएगा, चल जायेगा' और लारी चला दी. सिराजुद्दीन ने एक बार फ़िर इन नौज़वानों की कामयाबी के लिए दुआ मांगी और जी कुछ हल्का हो गया.

शाम के करीब कैंप में, जहाँ सिराजुद्दीन बैठा था, उसके पास ही कुछ गड़बड़-सी हुई. चार आदमी कुछ उठाकर ला रहे थे. उसने दरयाफ्त किया तो मालूम हुआ कि एक लडकी रेलवे लाइन के पास बेहोश पडी थी. लोग उसे उठाकर लाये हैं. सिराजुद्दीन उनके पीछे-पीछे हो लिया. लोगों ने लडकी को अस्पतालवालों के सुपुर्द किया और चले गए. कुछ देर वह एसे ही अस्पताल के बाहर लकडी के खंभे के साथ लगकर खड़ा रहा. फ़िर अहिस्ता-अहिस्ता अन्दर चला गया. कमरे में कोई भी नहीं था, एक स्ट्रेचर था जिस पर एक लाश पडी थी. सिराजुद्दीन छोटे-छोटे कदम उठता उसकी तरफ़ बदा. कमरे में अचानक रौशनी हुई. सिराजुद्दीन ने लाश के जर्द चहरे पर चमकता हुआ तिल देखा और चिल्लाया, "सकीना!"

डाक्टर ने, जिसने कमरे में रौशनी की थी, सिराजुद्दीन से पूछा, "क्या है?" सिराजुद्दीन के हलक से सिर्फ़ इतना निकल सका, "जी मैं...जी मैं इसका बाप हूँ!" डाक्टर ने स्ट्रेचर पर पडी हुई लाश की तरफ़ देखा, उसकी नब्ज़ टटोली और सिराजुद्दीन से कहा, "खिड़की खोल दो!"

सकीना के मुर्दा जिस्म में जुम्बिश पैदा हुई. बेजान हाथों से उसने इजारबंद खोला और सलवार नीचे सरका दी. बूढा सिराजुद्दीन खुशी से चिल्लाया, "जिन्दा है! मेरी बेटी जिन्दा है!"

डाक्टर सर से पैर तक पसीने में गर्क हो गया.
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"सआदत हसन मंटो"
मंटो का जन्म ११ मई, १९१२ को अमृतसर के एक बैरिस्टर परिवार में हुआ था. प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा के बाद २२ साल की उम्र में उच्च सिक्षा के लिए आलीगद मुस्लिम यूनीवर्सिटी में दाखिला लिया. वहीं पढ़ाई के दौरान उनकी मुलाक़ात अली सरदार जाफरी से हुई और आलीगद के प्रगतिशील माहौल ने मंटो की रचनात्मकता को पैना किया लेकिन अलीगाह में वह जादा तीनों तक टिक नहीं सके. वहाँ से अमृतसर और फ़िर लाहौर चले गए, जहाँ उन्होंने कूछ दिन 'पारस' अखबार में काम किया और 'मुसव्विर' नामक पत्र का सम्पादन भी किया. यहाँ भी जादा दिनों तक रह नहीं सके और मुंबई चले गए.

चार
साल वहाँ रहकर १९४१ में दिल्ली चल आए और एक ही सल् के बाद फ़िर मुंबई चले गए.
विभाजन के बाद १९४८ में पाकिस्तान चले गए. 'बू', 'काली सलवार', 'ऊपर-नीचे', दरमियां', 'ठंडा गोश्त', धुंआ', कहानियों को लेकर उन्हें अदालत में घसीटा गया और लंबे मुकदमे चले. इससे वह परेशान जरुर हुए लेकिन उनके तेवर ज्यों के त्यों बने रहे. जीवन के अन्तिम समय में वे मानसिक असंतुलन के शिकार हो गए थे.

१९३६
में उनका पहला कहानी-संग्रह 'आतिशपारे' छापा. वह सिर्फ़ ४२ साल जिए लेकिन उनके १९ साल के साहित्यिक जीवन से साहित्य जगत को २३० कहानियां, ६७ रेडियो नाटक, २२ शब्द-चित्र और ७० लेख मिले. तमाम जिल्लतें और परेशानियां उठाने के बाद १८ जनवरी, १९५५ में मंटो ने अपने इन्हीं तेवरों के साथ इस दुनिया को अलविदा कह दिया

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