उल्टा तीर पत्रिका 'जश्ने-आज़ादी-०८ '
हम सब की कोशिश इक रोज़ रंग ज़रूर लाएगी
ये ज़मी ये फिजा ये सूरत बदल जायेगी
वतन की वादियाँ गुलमोहर से महकेगी
नए माहौल में खुशियाँ घर घर में आयेगी
गणतंत्र दिवस पर उल्टा तीर पत्रिका की पेशक़श
प्रस्तुतकर्ता Amit K Sagar पर 7:26 am 7 टिप्पणियाँ
न लिखना, न पढ़ना
न बोलना , न मुंह खोलना
और तो और
सोचना तक नहीं !
क्या हो गया इन लोगो को ?
पराश्रित चेतना का
यह असूर्य समय कब बीतेगा ? (श्री बालकवि बैरागी)
प्रस्तुतकर्ता Amit K Sagar पर 7:17 am 1 टिप्पणियाँ
मेरी नज़र में "उल्टा तीर" समाज और देश के हालत को बेहतर बनने की एक छोटी सी कोशिश है .हालाँकि उल्टा तीर अभी शैशव अवस्था में ही है .एक नन्हा शिशु या एक छोटी सी परवाज़ जो उन्मुक्त गगन में उड़ने के लिए आतुर है . समाज में अपनी भूमिका और योगदान को परिभषित करना किसी के लिए भी जटिल हो सकता है .समाज की हर इकाई अपने अपने स्तर पर समाज के लिए अपना योगदान देती है . इस लिहाज से हमारी ये कोशिश फूलों का हार नही लेकिन फूलों का एक गुलदस्ता ज़रूर है . ये गुलदस्ता आप और हम सब मिलकर बनाते है .यही इसकी सबसे बड़ी विशेषता है .यही इसकी खासियत भी है . मुझे पूरा यकीन है आज नही तो कल ये फूल (यानी हम और आप) मिलकर एक माला अवश्य बन जायेंगे .
अमित के. सागर
प्रस्तुतकर्ता Amit K Sagar पर 7:03 am 4 टिप्पणियाँ
कहर बरपा रहे दुश्मनी के निशान
लाशें बिखरीं इस कदर तमाशे हुए
किसी की आँख से आंसूं को रोकोगे तुम
भाई के खून के भाई ही प्यासे हुए
किनसे नफरत करेंगीं वो बेटियाँ
पापा जिसके भी अल्लाह को प्यारे हुए
घर को लौटी हुई चप्पलों की सुनो
पाऊं उनके बैसाखी के सहारे हुए
"अमित सागर" बचपन से ही कवि सम्मेलनों में शिरकत करते रहे हैं । गुजरात में हाल ही में हुए बम धमाकों ने उन्हें विचलित किया और कविता की ये धारा निकल गई।
ब्लॉग: sagarami.blogspot.com
मेल: hindikavi.sagar@gmail.com
प्रस्तुतकर्ता Amit K Sagar पर 6:54 am 7 टिप्पणियाँ
आजादी मिल गई है लेकिन, मिट न सकी वो काली छाया
तन आजाद है, हो गया माना, मन आजाद तो हो नहीं पाया
अंग्रेजो के कोप से पीड़ित, जनता ने जब शोर मचाया
गली - गली में, घर - घर में, जब लोगों ने लहू तिलक लगाया
नर शव से जब जमी पट गयी, पर वलिदान न कम हो पाया
तब जाकर, भारत का गौरव, तिन रंग का धवज फहराया
सादियो से पिंजरे का बंदी, पंक्षी ने तब पर फैलाया
उड़ जाने की नील गगन में, सोचा, पर वो उड़ ना पाया
क्युकी वह था, भूख से पीड़ित, दलित, कहाँ वह जाता
किस - किस के आगे, वह अपनी, करुण कथा दुहराता
पेट की ज्वाला, कष्ट की राहें, देख के वह घबराया
मन का कादर, पिंजरे की, सुविधा को भूल न पाया
उसने सोचा, पिंजरे में था, मगर पास में रोटी थी
बंधकर रहना पड़ता था, पर कष्ट भी छोटी मोटी थी
एक मत्स्य हो दुषित अगर, तालाव दुषित हो जाता है
गलत सोच भी कभी - कभी, खासा महंगा पड़ जाता है
आज भी हम, उस गलत सोच को, दूर नहीं कर पाए है
हिले नहीं, है खड़े वही, पिंजरे की ताक लगाये है
हमें सोच के अन्धकार में, दीप ज्योति का लाना है
तन की मुक्ति की भाति ही, मन को भी मुक्त बनाना है
हमें मार्ग से भटक चुके, राही को राह पे लाना है
आजादी का अर्थ सही, क्या है, उनको बतलाना है
प्रस्तुतकर्ता Amit K Sagar पर 6:48 am 3 टिप्पणियाँ
आतंकवाद
(एक)
आतंकवाद
चल रहा है लंबे समय से
इस पर विवाद .
अब तो बन गया है यह
एक चलता - फिरता उत्पाद .
भारत छोड़ो
विश्व पर भी कर रहा
ये वज्रपात .
इसलिए आगे आओ
मेरे वीर जवानों
नए भविष्य के अरमानों
और देखो
आसपास कितने पल रहे है
सांप.
जो मासूम बच्चों और
महिलाओं के लिए बन गए है
अभिशाप ।
भारतवासियों की शान है .
देशभक्ति जगाने के लिए
चलाया जा रहा
जन -गण- मन जागरूकता
अभियान है .
क्या यही- 2
देश के प्रति हमारा सम्मान है .
नहीं,
कदापि नहीं .
देशभक्ति प्रचार -प्रसार
की वस्तु नहीं ,
यह तो हमारी आंतरिक
भावनाओं की अभिव्यक्ति है ,
जो प्रत्येक भारतीय को करना चाहिए .
यही सच्ची देशभक्ति है ।
(प्रस्तुति: तृष्णा शाह "तंसरी")
(तृष्णा शाह "तंसरी"के नाम से लिखने वाले श्री रामकृष्ण डोंगरे ,जीवन और समय की नब्ज़ की बखूबी अपनी रचनाओं में पिरोते हैं । ब्लॉग्गिंग जगत में इनकी गिनती अच्छे चिट्ठाकारों में होती है .सम्प्रति रामकृष्ण डोंगरे अमर उजाला में उपसंपादक के पद पर कार्यरत हैं )
ब्लॉग: http://dongretrishna.blogspot.com
प्रस्तुतकर्ता Amit K Sagar पर 6:31 am 3 टिप्पणियाँ
"जश्ने-आज़ादी पर हर बरस लगते हैं मेले
मेले बन गए भीड़ के रेले
वतन पर फ़िदा होने वालों का,
नहीं कोई नामो-निशाँ बाकी"
आज भी अखरता है अपने देश के नौज़वानों का देश की आज़ादी के मौकों पर रस्मी याद कर लेना उन शहीदों को। क्यों नहीं चाहता देश का बच्चा-बच्चा उन राहों पर चलना जिन पर देशभक्तों ने अपने सर्व-व्यस्य न्योछावर कर दिया. कहाँ गया वो जोश, वो जुनून देश की आज़ादी के पर्व को मनाने का जब सारे देश के लोग हफ्तों-महीनों पहले से ही इस जश्न में शामिल हो जाते थे और सब अपनी-अपनी तरह से इस आयोजन पर उन वीरों को याद करते और शपथ लेते थे देश पर जान न्योछावर करने की.
देश की राजधानी और राज्यों की राजधानियों में विशेष कार्यक्रमों में जन शैलाब उमड़ पड़ता था. अब तो स्कूली बच्चों को भी संगीनों के साये में बैठा के रखा जाता है. आधी रात से अघोषित कर्फ्यू का माहौल बना दिया जाता है. आम आदमी घर पर टेलीविजन पर बैठ कर ही आज़ादी का जश्न मनाता व् देख-सुन सकता है. सार्वजनिक स्थलों पर एकत्रित होने के लिए सुरक्षा संबन्धी निगमों से सहमती प्राप्त करनी पड़ती है. उसमें भी पानी, भोजन, और कार्यक्रम को दर्ज करने वाले उपकरण जैसे, कलम, कैमरे आदि पर भी प्रतिबन्ध लग जाता है. एक मजदूर जो रोज़ काम करके भोजन बनता है वह उस दिन कार्य नहीं करेगा तो क्या सरकार उस दिन का भोजन उसे प्रदान करेगी? नहीं! तो फ़िर ऐसी पाबन्दी का क्या अर्थ? फ़िर भी सरकार ऐसे कार्यक्रमों पर भारी धन राशि खर्च करती है, लोगों को सार्वजनिक अवकाश दिया जाता है. लेकिन उस भूखे बच्चों के बारे में शायद ही कोई सोचता होगा जो देश की आज़ादी के कारण इस मौके पर भी खूब से व्याकुल रोता है.
अब हम आजाद हैं लेकिन क्या अब भी हम पूरी तरह आजाद हैं. शिक्षा व्यवस्था वही, पुलिस तंत्र वही, विदेश नीति वही और सामंत शाही वही. सबसे बड़कर भूख, बेकारी और लाचारी वही.
अब आप स्यवं ही सोचिये जिसके कण-कण में भगवान् बसते हों, जिस भूमि को वीरों ने अपने रक्त से सींचा हो, उस धरा पर आज़ादी के ६० वर्षों बाद आज़ादी के जश्न को उसी उत्साह-उल्लास से मनाया जा सकता है जिन जिन सपनों को लेकर ६० वर्षों पूर्व मनाया था. कितने सपने सच हुए?
बल्कि आज तो देश में जनता के समक्ष आदरणीय व्यक्तित्व भी नहीं है. राजनैतिक नेताओं का आचरण अपराधियों से गया गुजरा हो गया है। देश पर जान न्योछावर करने वाले, सैनिक, सिपाहियों की पत्नियां अक्सर अपने बच्चों के भविष्य के प्रति चिंतित रहती हैं, देश में जगह-जगह आतंकवाद और क्षेत्रीयता की आग लगी हुई है. आजादी पूर्व धार्मिक लड़ाई नहीं थी बल्कि सभी एक साथ देश की आजादी के लिए लड़े और आज आपस में लड़ रहे हैं. जात-पांत की खाई ख़त्म करने के लिए लागू आरक्षण आज उसी खाई को और अधिक गहरी कर रहा है.
आज यह कहना कि अगस्त का महीना हर भारतीय को आज़ादी की याद दिलाता है और विशेष महत्त्व रखता है, ठीक ही है क्योंकि इस देश के टुकडों में बंट जाने का दर्द आज भी कम नहीं हुआ बल्कि यह इक नासूर बन गया है. अच्छ्याँ और बुराइयां बहुत हैं यदि संतोष है तो बस इतना कि, चलो राजपाठ तो बदला.
भाई, कम से कम एक बार भगवान् का नाम लेते समय जय हिंद का नारा भी लगा लेना शायद इसी से हर किसी के अन्दर देशभक्ति की भावना पैदा हो सके!
"करमबीर पंवार" सामायिक परिवेश पर सारगर्भित लिखते हैं । उनकी लेखनी से समाज के सर्वहारा वर्ग की आवाज़ मुखर होती है।सम्प्रति करमबीर पंवार जन उद्धार सामाजिक संस्था के निर्देशक है।
प्रस्तुतकर्ता Amit K Sagar पर 6:23 am 5 टिप्पणियाँ
"जश्ने-आज़ादी" एक आन्दोलन है युवाओं का. स्वतंत्रता की लड़ाई युवाओं को हमेशा अपनी ओर आकर्षित करती रही है. युवाओं की जवानी में भारत देश की जवानी बोलती है. पग-पग पर आजादी की लड़ाई के निशाँ हमें याद दिलाते हैं उन धरोहरों की, आजादी के उन रणवाँकुरों की और आजादी के लिए जीवन को दाव पर लगाकर घर-घरवाली छोड़कर मुश्किलों का सामना किया. समय गवाह है अंग्रेजों की कुतिनीती ने हमारी जवानी को ललकारा, मौत के लिए तैयार होने को कहा. मेरे देश की युवा पीडी हमेशा ही जागरूक रही है. आज भी वह दिवाली की तरह जश-इ-आज़ादी में शहादत देने वालों के ठिकानों पर दीप जलाकर श्रद्धांजलि अर्पित करती है।
जश्ने-आज़ादी" युवाओं की जवानी का दिया
साठ बरस हमें सुनानी, अंधियारे में उजियारा दिया।
मत भूलो आज़ादी हमने, जान गंवाकर पाई है
कईयों झूल गये फांसी, यौवन की बीन बजाई है
आजाद भगत नेता सुभाष सा जन्म हमने भी लिया
जश्ने-आज़ादी" युवाओं की जवानी का दिया
याद करें हम विस्मिल की, खुदी राम को याद करें
वीर भोगी बसुन्धरा यह, जान जान में संवाद करें
दिखलाते अमृत का प्याला, ज़हर भी हमने पीया
जश्ने-आज़ादी" युवाओं की जवानी का दिया
इन्कलाब जिंदाबाद का मरा वन्देमातरम
अंग्रेजों अब भारत छोडो, स्वतंत्रता महारातम
कलियुगी ईमान डिगाया, ज़ख्म जीवन का संया
जश्ने-आज़ादी" युवाओं की जवानी का दिया
अतिथि बन गये घर के मालिक, कैसी ये चालाकी है
जागो वीर सपूतो जागो, ध्वनि भारत माता की है
ये जवानी का करिश्मा, आज हंसता है दिया
जश्ने-आज़ादी" युवाओं की जवानी का दिया
जश्न-इ-आज़ादी हमारी, प्राण से प्यारी हमें
युवा पीढी सच पुकारी, याद को अच्छा समय
"प्रेम" की सर्वज्ञता है, चरण में आकर गिरा
जश्ने-आज़ादी" युवाओं की जवानी का दिया
प्रेम परिहार की लेखनी चलती नही दौड़ती है। इनके लेखन में विवधता है। हर विषय पर इनकी पैनी नज़र रहती है। सम्प्रति प्रेम परिहार दिल्ली दूरदर्शन में विडियो पत्रकार हैं।
प्रस्तुतकर्ता Amit K Sagar पर 6:13 am 5 टिप्पणियाँ
मेरे शहीदों!
आज तक मैंने किसी से नहीं कहा
कि
तुम्हारी शहादत के
बाद भी
तुम्हारे नाम पर
मैंने कितना कुछ सहा!!
यूँ तो मेरा सर
हमेशा नीचा है
तुम्हारे सामने
लेकिन बीसवीं सदी का
सबसे बड़ा अपराधी
(वह भी तुम्हारा)
बना दिया है
मुझे राम ने!!
मैं ख़ुद को
तुम्हरा निर्लज्ज अपराधी
घोषित करता हूँ
माँगता हों तुमसे
कठोर सज़ा
कि-
तुम जब गाड़ कर
आकाश पर मेरी ध्वजा
वापस नहीं लौटे
तब-
उन्होंने मेरी दीवार पर
अपना पोस्टर
बड़े दर्प से चिपकाया
और मुझे चेताया
"देखो"!
यह पोस्टर
लेई या गोंड से नहीं
शहीदों के खून से
चिपका रहे हैं
ससम्मान रखवाली करना
इस पोस्टर की
हम दूसरी दीवार की
तलाश में जा रहे हैं!!"
अब-
दीवार मेरी
पोस्टर उनका
और खून तुम्हरा
मातम मेरे घर
और उनके घर
बेषम खुशियों का फव्वारा!!
मैं चीखना चाहता था
पर चीख नहीं पाया
इस कायर भीड़ से
अलग दीख नहीं पाया!
मेरे शहीदों!
मेरी दीवार पर
उनके पोस्टर के पीछे लगा
तुम्हारा खून पपडा रहा है
और यह पपडाता लहू
मुझे न जाने कौन कौन से पाठ
पढा रहा है?
"श्री बाल कवि बैरागी" हिन्दी कविता के सुपरिचित कवि हैं । राजनीति को अपना कर्म और साहित्य को अपना धर्म मानाने वाले कवि श्री बालकवि बैरागी का प्रारंभिक जीवन विपन्नता में बीता .संघर्ष कर जीवन को ऊँचा कैसे उठाया जाता है .बालकवि जी इसकी जीवंत नजीर हैं।
प्रस्तुतकर्ता Amit K Sagar पर 6:03 am 0 टिप्पणियाँ
ये आज चारों ओर फ़िर से क्या हो रहा है
इंसानियत का नाता किस ओर सो रहा है
अपने ही स्वार्थ वश हर मनुष्य जी रहा है
अपने ही साथियों का वो खून पी रहा है
पहले थी दोस्ती अब रंजिश पल रही है
धर्मों की आड़ में अब सच्चाई जल रही है
आओ हम सब मिलकर, इक शमां नई जलाएं
शमां की रोशनी में सबको दिशा दिखाएँ
नफरत सभी के दिल से मिलकरके हम मिटायें
मानवता का पथ सबको मिल करके हम पढाएं।
प्रस्तुतकर्ता Amit K Sagar पर 5:53 am 2 टिप्पणियाँ
उम्मीद थी कि जल्दी ही उतर जायेगी,
रात की चादर,
और जागेगी एक नयी सुबह-
सपनो की , उम्मीदों की, उजालों की ।
मगर रात...
रात कटी नही अबतक,
अँधेरा तारी है, सन्नाटा भारी है।
नज़र आते हैं इन अंधेरों में भी मगर,
किसानो के बच्चे जो भूखे सो गए,
गरीब बेघर कितने
वहाँ पडे फुटपाथों पे , चीथड़ों में,
सुनायी पड़ती है इन सन्नाटों में भी,
आहें उन नौजवानों की,
जिनके कन्धों पर भार हैं , मगर "बेकार"हैं।
चीखें उन औरतों की,
जो घरों में हैं, घर के बाहर हैं,
वासना भरी नज़रों का झेलती रोज बलात्कार हैं,
चकलों में, चौराहों में शोर है,
ज़ोर है- ज़ोर का राज है,
हैवान सडकों पर उतर आये,
सिम्हासनों पर विराज गए,
अवाम सो गयी,
नपुंसक हो गयी कौम।
हिंदुवों ने कहीँ तोड़ डाली मस्जिदें,
तो मुसलमानो ने जला डाले मंदिर कहीँ,
किसी बेबस माँ ने बेच दी अपनी कोख कहीँ तो,
किसी दरिन्दे बाप ने नोच डाला,
अपने ही लक्ते-जिगर को,
उफ़ ये अँधेरा कितना कारी है
अँधेरा तारी है, सन्नाटा भारी है,
इन अंधेरों की धुंध में भी कहीँ मगर,
चमक जाते हैं कुछ जुगनू रहत बन कर,
और कुछ मुट्टी भर सितारे,
चमक रहे हैं यूं तो ,
मेरे भी मुल्क के आसमान पर,
मगर फिर भी,
अँधेरा तारी है, सन्नाटा भारी है।
जुगनू नही, तारे नही,
आफताब चाहिऐ,
जिसकी रौशनी में चमक उठे,
जर्रा जर्रा, चप्पा चप्पा,
जिसकी पुकार से नींद टूटे,
सोयी रूहों की,
पंछियों को गीत मिले,
बच्चों को खुला आसमान दिखे,
उस सुबह के आने तक,
उस सूरज के उगने तक,
आओ जलाए रखे,
उम्मीदों के दिए,
जुगनू बने, सितारे बने,
हम सब एक रौशनी बन कर,
मुकाबला करें,
इस अँधेरी रात का,
नींद से जागो, अभी जंग जारी है,
अँधेरा तारी है, सन्नाटा भारी है।
प्रस्तुतकर्ता Amit K Sagar पर 5:47 am 1 टिप्पणियाँ
एक बहुत बड़ा प्रश्न यह उठता है कि आज देश के लिये जो शहीद हुये है उनके लिये ऑंसू बहाने का समय है ? कि उन शहीदों के सफनों के सपनो को साकार करने के लिये ऑंखों में देश के प्रति कर्तव्य पालन के लिये आँखों में अंगार सुलगाये रखने का समय है? आज देश को अपनी सोच में परिवर्तन करने का समय है। हमारे शहीदों की सही श्रृंद्धाजली आँखो में पानी भरने से न होगी, सच्ची श्रृद्धाजंली तो तब होगी जब देश की तरफ शत्रु आँख उठा कर न देख पाये, जो आँख कभी उठे भी उसे दोबारा उठने लायक न छोड़ा जाये।
आज के दौर हो सकता है कि गांधीवाद के रास्ते से शान्ति स्थापित की जा सकती है, किन्तु हमारी सरकार गांधीवाद की गांरटी लेने को तैयार नही है? जिस गांधीवाद के जरिये शान्ति का ढिड़ोरा पीटा जा रहा है। गांधीवाद प्रसंगगत ही ठीक लगता है इसकी वास्तविकता से कल्पना करना राई के पहाड़ बनाने के तुल्य होगा। राई का पहाड़ तभी सम्भव होगा जब कि बलिदान रूपी मूसर से उस बार कर उसकी गोलाई को नष्ट न किया जाये।
जब किसी बात की शुरूवात होती है तो उसका अंत करना काफी कठिन होता है, देश की आजादी में सिर्फ गांधीवाद के ढकोले को श्रेय दिया जाता है। जबकि गाँधी जी की गांधी जी जिद्दी और तानाशाही प्रवृति के के कारण भगतसिंह, नेताजी और लौहपुरूष पटेल को किनारे रखा गया। गांधी जी की आपने आपको मसीहा साबित करने की नीति का कारण था कि वे पाकिस्तान को बटवाने के समय ५५ करोड़ दिलाने के लिए उन्होंने अनशन किया, जबकि सब इसे देने के खिलाफ थे। १९४२ का सफल चल रहा आन्दोलन उन्होंने एक छोटी सी घटना के कारण वापस ले लिया, जबकि सभी ने ऐसा न करने की सलाह दी। और भी कई उदाहरण हैं, गाँधी जी सब जगह अपनी ही मर्जी चलाते थे। नही तो क्या जिस आजादी के लिये लाखो लोगों ने अपनी प्राण देने में नही हिचके, उन गांधी जी ने देश की आखंड़ता को ताक पर रखकर देश का बटवारा कर दिया। भले ही गांधीवाद को अपने प्राण प्यारे थे किन्तु देश में वीर सावरकर और देशभक्त नाथूराम जैसे अनेको देशभक्त देश की अखंड़ता के लिये संषर्घ करने को तैयार थे किन्तु गांधी जी की नेहरू को प्रधानमंत्री रूप में देखने की लालसा ही भारत विभाजन का कारण बनी। गांधी जी को तत्कालीन हिंसा तो दिखी, किन्तु उन्होने नेहरूवाद की पट्टी से उनकी आँखे बाद थी जिसका कारण यह था कि आज तक भारत ने इनते प्राणों का आंतकवाद की आग में प्राण गवा दिये जितनी की कल्पना गांधी जी को न रही होगी।
हमने वीरों के बलिदानों से आजादी तो प्राप्त की किन्तु तत्कालीन नेताओं ने अपनी माहत्वकांक्षाओं की पूर्ति का साधन आजादी को मान लिया था, आजादी मिलते ही देश का नेतृत्व ऐसे हाथों में चला गया जिसने जीवन भर विलासिता का जीवन ही जिया, उसे आजादी और अखंडता से क्या मतलब था ? आज भारत देश की सबसे बड़ी कमजोरी उसका कमजोर नेतृत्व था। हम उस प्रधानमंत्री से क्या आस लगा सकते है जो पर स्त्री एडविना के प्रेम का दीवना था। एक तरफ भगत सिंह जैसे देशभक्त ने आजादी को अपनी दुल्हन माना था वही नेहरू को दूसरे की मेहरिया का रखैला बनने में आंनद था। हम किसी विलासित व्यक्ति से और अपेक्षा क्या कर सकते है? अगर भारत अंग्रेजों का गुलाम था तो नेहरू एक अंग्रेज स्त्री का। और एक विदेशी स्त्री के गुलाम व्यक्ति से हम अपेक्षा ही क्या कर सकते है ? सभी को पता है कि भारत विभाजन में सबसे महत्वपूर्ण कड़ी माउंटबेटन थे और ये उसी एडबिना के पति थे। भारत विभाजन की के परिपेक्ष में नेहरू-एडविना-माउंटबेटन की केमेस्ट्री का खुलासा होना चाहिये था किन्तु हमारा तंत्र उन्ही के हाथो में रहा जो अपराधी थे। जिस भारत की अंखड़ता को 2000 साल के आक्रमणकारी नही नष्ट कर पाये, कुछ चाटुकारों ने मिलकर नष्ट कर दिया।
सही है कि कलयुग आ गया है, कहावत है जिसकी लाठी उसी की भैंस होती है। हमारी शिक्षा व्यवस्था को अंग्रेजी शासन में इतना तहस नहस नही किया गया जितना की स्वतंत्र भारत की प्राथमिक सरकार ने किया। हमारे इतिहास में तिलक, सुभाष को बंद दरवाजे में डाल दिया गया, बचे तो सिर्फ गांधी और गांधी। गांधी जी के सम्मान में 2 अक्टूबर की राष्ट्रीय अवकाश के मायने को स्पष्ट किया जाना चाहिये। गांधी व्यक्ति का आगमन 1915 में हुआ, क्या इससे पहले का आन्दोलन नही हुआ? गाधी नेहरू की आड़ में बहुत सम्माननीय राष्ट्रभक्तों को किनारे का रास्ता दिखा दिया गया। नेहरू-गांधी परिवार का इतिहास रहा है कि वह वह अपने हितों को साधने के लिये किसी भी नेता को हासिये पर डालते रहे है। अतीत से वर्तमान तक की गांधी परिवार को देखे तो पायेगे कि जो काम आजादी के पहले सुभाष बाबू और सरदार पटेल के साथ गाधी और नेहरू के उद्भव के लिये किया गया वही काम इदिरा के लिये लालबहादुर शास्त्री के साथ तथा वर्तमान में सोनिया-राहुल के लिये नरसिह्मा राव और सीता राम केसरी के साथ किया और अभी भी कितनों के साथ किया जा रहा है। यह देश की आड़ में व्यक्तिगत हित साधना नही तो और क्या है?
आज भारत की तकदीर बदलनी है तो हमें व्यक्तिवाद को समाप्त करना होगा, भारत के महापुरूषों का अपमान करके कभी भी भारत की उन्नति के मार्ग को नही बनाया जा सकता है। बड़े शर्म की बात है कि हमारे देश की सर्वोच्च प्रशासनिक परीक्षा में भगत सिंह का आतंकवादी बताया जाता है। जिस देश की शिक्षा प्रणाली से बच्चों को भगत सिंह से दूर रखने का प्रयास किया जा रहा है। वहॉं पर गांधीवाद नाम का अनर्गल प्रलाप ही किया जा सकता है। गांधीवाद की प्रशासंगिकता का समझना होगा कि कहाँ इसका उपयोग किया जायेगा। किसी दुश्मन देश के साथ गांधीवाद के जरिये कोई मसला नही हल किया जा सकता है, कम से कम पाकिस्तान और चीन के साथ तो कभी भी नही।
बातों को कहना जिनता आसान होता है करना उतना ही कठिन, हृदय में स्वतंत्र भारत को शवशैया पर देखकर दुख होता है कि आजादी के 70 सालों में ही वह दम तोड़ने लगा है। आज हमें अपनी आजादी के मायनों के बारें में सोचना होगा। हम विश्व गुरू कहालाते थे कि आज हम अच्छे शिष्य भी नही बन पा रहे है। नेताजी, भगतसिंह ने ऐसी आजादी की कल्पना नही की होगी जिसमें जिसमें भ्रष्टाचार, वैमस्य और रिश्वतखोरी हो। आज देश की आजादी के लिये लाखों सेनानियों की रक्त कुर्बानियों को आज की युवा पीढ़ी सिगरेट के धुयें में उड़ाती चले जा रही है।
ब्लॉग: http://pramendra.blogspot.com
प्रस्तुतकर्ता Amit K Sagar पर 5:41 am 1 टिप्पणियाँ
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