सवालों के बीच जश्ने-आज़ादी ??
"जश्ने-आज़ादी पर हर बरस लगते हैं मेले
मेले बन गए भीड़ के रेले
वतन पर फ़िदा होने वालों का,
नहीं कोई नामो-निशाँ बाकी"
आज भी अखरता है अपने देश के नौज़वानों का देश की आज़ादी के मौकों पर रस्मी याद कर लेना उन शहीदों को। क्यों नहीं चाहता देश का बच्चा-बच्चा उन राहों पर चलना जिन पर देशभक्तों ने अपने सर्व-व्यस्य न्योछावर कर दिया. कहाँ गया वो जोश, वो जुनून देश की आज़ादी के पर्व को मनाने का जब सारे देश के लोग हफ्तों-महीनों पहले से ही इस जश्न में शामिल हो जाते थे और सब अपनी-अपनी तरह से इस आयोजन पर उन वीरों को याद करते और शपथ लेते थे देश पर जान न्योछावर करने की.
देश की राजधानी और राज्यों की राजधानियों में विशेष कार्यक्रमों में जन शैलाब उमड़ पड़ता था. अब तो स्कूली बच्चों को भी संगीनों के साये में बैठा के रखा जाता है. आधी रात से अघोषित कर्फ्यू का माहौल बना दिया जाता है. आम आदमी घर पर टेलीविजन पर बैठ कर ही आज़ादी का जश्न मनाता व् देख-सुन सकता है. सार्वजनिक स्थलों पर एकत्रित होने के लिए सुरक्षा संबन्धी निगमों से सहमती प्राप्त करनी पड़ती है. उसमें भी पानी, भोजन, और कार्यक्रम को दर्ज करने वाले उपकरण जैसे, कलम, कैमरे आदि पर भी प्रतिबन्ध लग जाता है. एक मजदूर जो रोज़ काम करके भोजन बनता है वह उस दिन कार्य नहीं करेगा तो क्या सरकार उस दिन का भोजन उसे प्रदान करेगी? नहीं! तो फ़िर ऐसी पाबन्दी का क्या अर्थ? फ़िर भी सरकार ऐसे कार्यक्रमों पर भारी धन राशि खर्च करती है, लोगों को सार्वजनिक अवकाश दिया जाता है. लेकिन उस भूखे बच्चों के बारे में शायद ही कोई सोचता होगा जो देश की आज़ादी के कारण इस मौके पर भी खूब से व्याकुल रोता है.
अब हम आजाद हैं लेकिन क्या अब भी हम पूरी तरह आजाद हैं. शिक्षा व्यवस्था वही, पुलिस तंत्र वही, विदेश नीति वही और सामंत शाही वही. सबसे बड़कर भूख, बेकारी और लाचारी वही.
अब आप स्यवं ही सोचिये जिसके कण-कण में भगवान् बसते हों, जिस भूमि को वीरों ने अपने रक्त से सींचा हो, उस धरा पर आज़ादी के ६० वर्षों बाद आज़ादी के जश्न को उसी उत्साह-उल्लास से मनाया जा सकता है जिन जिन सपनों को लेकर ६० वर्षों पूर्व मनाया था. कितने सपने सच हुए?
बल्कि आज तो देश में जनता के समक्ष आदरणीय व्यक्तित्व भी नहीं है. राजनैतिक नेताओं का आचरण अपराधियों से गया गुजरा हो गया है। देश पर जान न्योछावर करने वाले, सैनिक, सिपाहियों की पत्नियां अक्सर अपने बच्चों के भविष्य के प्रति चिंतित रहती हैं, देश में जगह-जगह आतंकवाद और क्षेत्रीयता की आग लगी हुई है. आजादी पूर्व धार्मिक लड़ाई नहीं थी बल्कि सभी एक साथ देश की आजादी के लिए लड़े और आज आपस में लड़ रहे हैं. जात-पांत की खाई ख़त्म करने के लिए लागू आरक्षण आज उसी खाई को और अधिक गहरी कर रहा है.
आज यह कहना कि अगस्त का महीना हर भारतीय को आज़ादी की याद दिलाता है और विशेष महत्त्व रखता है, ठीक ही है क्योंकि इस देश के टुकडों में बंट जाने का दर्द आज भी कम नहीं हुआ बल्कि यह इक नासूर बन गया है. अच्छ्याँ और बुराइयां बहुत हैं यदि संतोष है तो बस इतना कि, चलो राजपाठ तो बदला.
भाई, कम से कम एक बार भगवान् का नाम लेते समय जय हिंद का नारा भी लगा लेना शायद इसी से हर किसी के अन्दर देशभक्ति की भावना पैदा हो सके!
"करमबीर पंवार" सामायिक परिवेश पर सारगर्भित लिखते हैं । उनकी लेखनी से समाज के सर्वहारा वर्ग की आवाज़ मुखर होती है।सम्प्रति करमबीर पंवार जन उद्धार सामाजिक संस्था के निर्देशक है।
5 टिप्पणियाँ:
आपने सवाल तो बहुत खड़े किए है अब इनका जवाब भी दे दीजिये की आज़ादी किसे कहे
बहुत ही सुंदर शब्दों से आपने अपनी जिम्मेदारी ली है की हम सब मिल कर देश के लिए बहुत कुछ कर सकते है और बहुत से आप जैसे लोग कर भी रहे है इसके लिए आपको बहुत बहुत बधाई
जो आज़ादी पर सवाल खड़े करते है उन्हें सायद आज़ादी मिली है या नही इसका मुझे पता नही लकिन मेरे भाई जरूरी तो ये नही की बुराई को जीना पड़े
"उल्टा तीर" पर आप सभी के अमूल्य विचारों से हमें और भी बल मिला. हम दिल से आभारी हैं. आशा है अपनी सहभागिता कायम रखेंगे...व् हमें और बेहतर करने के लिए अपने अमूल्य सुझाव, कमेंट्स लिखते रहेंगे.
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साथ ही उल्टा तीर पर भाग लीजिये बहस में क्योंकि बहस अभी जारी है। धन्यवाद.
अमित के. सागर
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