रविवार, 3 अगस्त 2008

मानवता का सूरज



मानवता का सूरज-मनोहर लाल 'रत्नम'


देश का बचपन पूछ रहा है, अपने पथ प्रदर्शक से,
दशा देश की दीं हो रही, तुम बैठे बन दर्शक से.
क्या तुमने भी यौवन लुटा, रातों के अंधियारों में?
मानवता का सूरज डूबा, बोलो किस गलियारे में?

हर अंगारा तुमने ही तो, अंधियारे में धो डाला
धर्म नाम का ज़हरी पौध, हर बस्ती में बो डाला.
केवल काली करतूतों ने, दिन को रात बना कर ही-
देश के यौवन का भी यौवन, तुमने सारा खो डाला.
अक्षर धाम का अक्षर-अक्षर, घायल होकर रोता है
बैश्नों देवी की यात्रा में, अब तो हमला होता है।

आतंकी इतना बलशाली, अमर नाथ हैरान हुआ-
जम्मू में रघुनाथ का मन्दिर, अपना धीरज खोता है
फ़िर से अगन भरी है किसने, बुझे हुए अंगारों में?
मानवता का सूरज डूबा, बोलो किसी गलियारे में?

लाल किला भी चीख-चीख कर अपने घाव दिखाता है
भारत का संसद भी हाय, अब घायल हो जाता है
नेताओं को पेट चिंता, देश की चिंता भूल गए-
भारत में ही देश पड़ोसी, घुसपैठी भिजवाता है
अब विधान की लगी सभा, चम्बल की घाटी लगती है
भारत के अब हर प्रदेश के, मुख पर कालिख चढ़ती है
नेताओं का गया आचरण, बस कुर्सी से प्यार हुआ-
चप्पल-घूसों से तो, देश की संसद डरती है.
इतना सहस भरा है किसने, सहमे से बंजारे में?
मानवता का सूरज डूबा, बोलो किसी गलियारे में?


यौवन आज नशेडी बनकर, भटक गया है गलियों में,
माली की भी नज़र करारी, अटक गयी है कलियों में.
वातावरण विषैला सारा, और घिनौना खेल यहाँ-
बची-खुची जो है तरुणाई, वह खोई रंग-रलियों में
राजसभा की इक द्रोपदी, अब ठाणे में रोटी है,
वर्दी न्याय नहीं देती, नारी भी धीरज खोती है

पञ्च वर्ष की कन्या से अब, पाप कर्म होता रहता-
अपराधी की मौज यहाँ पर, रोज़ रात को होती है.
देश भक्त जाकर जोए क्या, देखो अब गद्दारों में?
मानवता का सूरज डूबा, बोलो किस गलियारे में?

देश का बचपन जाग गया है, वह हर पथ बनवालेगा,
वह गलियारा भी खोजेगा, सूरज नया उगा लेगा.
पथ प्रदर्शक खड़े, खड़े ही, केवल इतना सुन लेना-
एक ओर सब हो जाओ फ़िर, वह इतिहास रचा लेगा


हल्दी घाटी वाला पौरुष, इनको कुछ समझायेगा
लालकिला दिल्ली वाला भी, कुछ तो यहाँ बताएगा
झांसी, कालपी और ग्वालियर से, यह कुछ तो पायेंगे-
जो इतिहास रचेगा नूतन, वह ही चलकर आएगा.
पूछ रहा है 'रत्नम' फ़िर से, रातों के रतनारे में!
मानवता का सूरज डूबा, बोलो किस गलियारे में?

आप वीर-व्यंग हास्य कवि हैं। सम्प्रति दिल्ली में रहते हैं।

3 टिप्पणियाँ:

Internet Existence 3 अगस्त 2008 को 1:01 pm बजे  

जोश भरे प्रयास का स्‍वागत है

डा ’मणि 6 अगस्त 2008 को 10:54 am बजे  

सादर अभिवादन
आपकी शाक्त रचना के लिए बहुत बधाई मित्र
आनंद आ गया बंधु
आपसे परिचय होना अच्छा रहा
चलिए अपने परिचय के लिए
एक कविता भे रहा हूँ इसे आज ही मैने अपने ब्लॉग पे पोस्ट किया है
और हाँ बंधु मेरा ब्लॉग भी एक बार देखिए गा ज़ाऊर , क्यों , देखेंगे ना..
और मेरे ब्लॉग मे आपको कोई दम वाली बात लगती है तो बड़ा अच्छा लगेगा यदि मेरे ब्लॉग को अगर आप अपनी ब्लॉग लिस्ट मे जगह देंगे

मैं जो हूँ
मुझे वही रहना चाहिए

यानि
वन का वृक्ष
खेत की मेढ़
नदी की लहर
दूर का गीत , व्यतीत
वर्तमान में उपस्थित

भविष्य में
मैं जो हूँ
मुझे वही रहना चाहिये

तेज गर्मी
मूसलाधार वर्षा
कडाके की सर्दी
खून की लाली
दूब का हरापन
फूल की जर्दी

मैं जो हूँ ,
मुझे वही रहना चाहिये
मुझे अपना होना
ठीक ठीक सहना चाहिए

तपना चाहिए
अगर लोहा हूँ
तो हल बनने के लिए
बीज हूँ
तो गड़ना चाहिए
फूल बनने के लिए

मगर मैं
कबसे
ऐसा नहीं कर रहा हूँ
जो हूँ वही होने से डर रहा हूँ ..

DU UDAY MANI KAUSHIK
http://mainsamayhun.blogspot.com

Amit K Sagar 3 सितंबर 2008 को 6:17 am बजे  

"उल्टा तीर" पर आप सभी के अमूल्य विचारों से हमें और भी बल मिला. हम दिल से आभारी हैं. आशा है अपनी सहभागिता कायम रखेंगे...व् हमें और बेहतर करने के लिए अपने अमूल्य सुझाव, कमेंट्स लिखते रहेंगे.

साथ ही आप "हिन्दी दिवस पर आगामी पत्रका "दिनकर" में सादर आमंत्रित हैं, अपने लेख आलेख, कवितायें, कहानियाँ, दिनकर जी से जुड़ी स्मृतियाँ आदि हमें कृपया मेल द्वारा १० सितम्बर -०८ तक भेजें । उल्टा तीर पत्रिका के विशेषांक "दिनकर" में आप सभी सादर आमंत्रित हैं।

साथ ही उल्टा तीर पर भाग लीजिये बहस में क्योंकि बहस अभी जारी है। धन्यवाद.

अमित के. सागर

  © Blogger template 'Solitude' by Ourblogtemplates.com 2008

Back to TOP