मंगलवार, 27 जनवरी 2009

और कितनी सज़ा दोगी मुझे?

[मेरे ज़ज्बातों की कहानी मौजे सागर उल्टा तीर परिवार का ही एक ब्लॉग हैब्लोगिंग जगत के कुछ मित्रो के अनुरोध पर "और कितनी सज़ा दोगी मुझे ?" का हम प्रकाशन कर रह हैंदरअसल, मौजे सागर मेरे दिल का हाले बयां है ।]

कैसे हो तुम?

ये पूछना कि तुम कैसी हो, थोड़ा सा अटपटा है, इसलिए सोचता हूँ! तुम कैसे होगी? और इस बात पर कोई कयास लगाऊँ, ये अब कुतुर्ब सा लगता है। इसलिए बस एक दुआ करता हूँ, हमेशा ही, तुम बहुत ख़ुश और स्वस्थ हो।! और होना ही चाहिए। और यकीनन शायद तुम जानना चाहो कि मैं कैसा हूँ? तो मेरा जवाब हमेशा की तरह वही हो, जो तुम ख़ुश हो तो मैं बहुत ख़ुश हूँ।

तुम हर शय में हो, हर जगह हो!

जानती हो, २-३ दिनों के अन्दर एक दोस्त ने बड़ा झटका सा दिया मुझे। यकीन नहीं हुआ कि मुझे कुछ हुआ है या फ़िर उस क्षणिक पल में तुम ही ख़ुद-ब-ख़ुद आ गयीं थी। उसे मुझे कुछ ज़रूरी काम था सो उसने किसी और फोन पर मुझे फोन किया, उसने अपना नाम बताया आदतन, चूँकि मैं मोबाइल पर नहीं था, मैंने उसकी आवाज़ पहचान कर भी पूछ लिया, कौन बोल रहा है? और फ़िर उसने मुझे बना डाला। उसने उन २-३ पलों में जितनी धीमी आवाज़ से मुझसे बात की, और वो आवाज़ जिस तरह की बनी, मैं हतप्रत था, वो आवास उन पलों में सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम्हारी थी। दिमाग को एक करारा झटका। किसी और की आवाज़ तुम्हारी आवाज़ कतई नहीं हो सकती। लेकिन उन पलों में मैं खो सा गया। जैसे किसी रात में तुम्हारी आवाज़ में खो जाना, डूब जाना। बाद में मैंने सही से उससे बात की, पर आभास नहीं होने दिया नाहीं उसे कुछ जताया. बस, मैं तुममें कहीं फ़िर डूबता चला गया सब कुछ भूल के. अंततः मैंने सोचा इसकी बाबत तो मुझे यही लगा, तुम्हारी आवाज़ इन दिनों मेरे भीतर कुछ जादा ही हलचल कर रही है। हलाँकि इसका ये मतलब कतई नहीं कि वाधा पैदा हो रही हो कुछ भी करने में। लेकिन पिछले दिन ही उसका फ़िर फोन आया, इस बार कुछ नया था लेकिन था हमारा ही वही सदावाहार बाहार। "म्याऊं" उसे मुझसे कुछ काम था, काम की बात जब ख़तम हुई, उसने कहा: कुछ सुनाई आ रहा है? मैंने गौर दिया उसकी बात पर; किसी बिल्ली के बच्चे के "म्याऊं-म्याऊं" करने की आवाज आ रही थी। उसने बताया, उसके घर के पड़ोस में बिल्ली ने बच्चों को जन्म दिया है। एक बच्चा बड़ा प्यारा है, उसने उसे पाल लिया है। और अभी वो "म्याऊं-म्याऊं- कर रहा है। अब तुम बताओ मैं क्या कहता "म्याऊं" एक अजीब इत्तेफ़ाक था, एक बार का नहीं दो बार का। मैं इस बार भी चुप रहा। पर दिल को बहुत सुकून में कहीं पाया। और तुम्हारी आवाज़ की सरगोशियाँ, तुम्हारी यादों की बतियाँ इन दो दिनों में मुझे तुममें डूबने के सिवा और कुछ करने ही नहीं दे रहीं। बस तुम्हारी यादों में खोके दिल को करार आ रहा है। तुम्हें देखने का और तुम्हारी आवाज़ सुनाने के लिए मन बहुत तड़प रहा है। इस दिल की तड़प क्या तुम्हें सुनाई नहीं देती है जान!


क्या से क्या हुआ है?

मैंने तुम्हें हमेशा से अपनी ताकत बनाना चाहता रहा। लेकिन क्यों महसूस करता हूँ आज कि तुम मेरी कमजोरी बनती जा रही हो। इससे मुझे क्या मिलेगा? कुछ भी तो नहीं न? और तुमने तो कभी भी नहीं चाहा कि ऐसा कुछ भी हो। पर आज हो रहा है। ख़ुद से तुम्हारे दूर होते जाने का आशय मैं समझ सकता हूँ लेकिन यही तो उल्टा हो रहा है। जैसा तुम सोचके ऐसा कर रही हो, मैं वैसे ही आगे नहीं बढ़ पाने में ख़ुद को अक्षम सा महसूस कर रहा हूँ। हाँ, मानता हूँ और जानता हूँ एक न एक दिन तो सब कुछ बेहद अलग ही तरीके से बदल जायेगा। जिसे हम चाहकर भी नहीं बदल सकते. हलाँकि चाहते हैं. लेकिन नहीं! कुछ रास्तों के ऐसे भी मकाम हुआ करते हैं? जैसे कि एक कच्चे मकान का पक्के मकान में बनाना या फ़िर किसी महल का टूट कर बिख़र जाना सा। ज़िन्दगी भी ऐसी ही होती है न। बुनना, उधेड़ना, समेटना और बिखरना।

और कितनी सज़ा दोगी मुझे?


कभी-कभी मेरी समझ में कुछ भी नहीं आता। न दर्द और न खुशी। न रास्ते न मंजिल। न बहना और न ठहराव। बस तठस्थ सा होना। ये क्या है। तुम किसी भी तरह साथ देतीं तो शायद मेरे सवाल हल हो जाते। इन सवालों की गुत्थियों को मैं कहाँ लेके जाऊं? मुझमें न तो अब ठहराव प्रतीत होता है और न बहाव ही। क्या ऐसी स्तिथि नाज़ुक और खतरनाक नहीं होती? और सबसे बड़ा सवाल तो ये है कि ज़िन्दगी कट रही है। फ़िर चाहे जैसे भी। मगर ऐसे क्यों? कि आज से आने वाले भी हर वक़्त में सिर्फ़ ख़ुद से करने के लिए सवाल ही होंगे? क्या ये बुरा सा नहीं? जहाँ न कोई संभावना दिखती हो और न कोई मकाम वहाँ ठहर के कोई ख़ुद को क्या कहेगा? या क्या कह सकता है?

मैं चाहता हूँ कि अब ये हाले-दिल बदले

तुम मेरे गुनाह माफ़ क्यों नहीं कर देतीं? और मैं जिन गुस्ताखियों को, जिन गलतियों को गुनाह कहता हूँ; सचमुच वो गुनाह तो नहीं, मगर मैंने गुनाह सी सज़ा काटी है मगर अभी और कितनी मेरे खुदा? क्या प्यार से बढ़कर वो कुछ बातें बहुत जादा अहम् हो जायेंगी जिन्हें मैंने तुमसे बिना ये सोचे-समझा कहा; कि तुम्हें कितना दुःख महसूस हुआ होगा या फ़िर वो सब कुछ इतना बड़ा हो जायेगा जब मैंने तुम्हारी हर बात मानकर भी नहीं मानी। तुम यकीन करो आज मेरी ओर से बहुत कुछ बदल गया है। प्यार में बदले जैसी कोई भावना नहीं मेरे अन्दर अब। पर क्या कभी-कभी बात कर लेना, तुम्हारी आवाज़ सुन लेना भी मेरा नसीब नहीं हो सकता? तुम मुझे प्यार मत करो अब, मेरा साथ मत दो अब, मेरी हमदम मत बनो अब, मेरी हमसफ़र मत बनो अब लेकिन मैं तड़पता हूँ सिर्फ़ तुम्हें सुनने के लिए! तुम्हारी खुशी, तुम्हारा दुःख महसूस करने के लिए? मेरी तो हर खुशी और दुःख तुमसे ही बनती-बिगड़ती है। इसका तो कोई इलाज़ हो? ये लाइलाज सा होता जा रहा है? क्या तुम्हें कभी भी अब तक महसूस नहीं किया कि तुम मुझे अब बेज़ार कर रही हो? अगर तुम्हें मलाल हैं कई मेरी गलतियों की ख़ातिर, तो सुना दो फ़िर अपना फैसला आज ही अभी ही...मैं उफ़ तक नहीं करूंगा...मगर इस तरह कैसे जियूं मैं? ज़हाँ जीने जैसा कुछ नहीं है...सिर्फ़ सिसक है, तन्हाई है, दर्द की आहें हैं, और हर तरफ़ बेज़ारी!
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मैं चाहता हूँ कि अब ये हाले-दिल बदले
"सागर" ये ज़मी बदले या आसमाँ बदले

दर्द का हर मंज़र बदले, मैं बदलूँ तू बदले
फिज़ाओं का रंग बदले या ये हवा बदले

बदलना ज़रूरी है दर्द बदले या ख़ुशी बदले
अपने सबब पे वफ़ा बदले या बेवफ़ा बदले

अमित के सागर
[मौजे-सागार ब्लॉग से ]

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