मंगलवार, 27 जनवरी 2009

प्रतिक्रिया या पूर्वक्रिया


[राघवेन्द्र सिंह]

बहस
और प्रतिक्रिया के अलावे हमारे पास करने को बचा क्या है? बहुत लगा, तो छोटे-२ समूहों में चर्चा करके अपनी भडांस निकल लिया करते हैं. यह सिर्फ़ मेरी बात नही है. अपने आस-पड़ोस में यही सब कुछ देखता आया हूँ. लेकिन यह भी एक सच है, कि हममें से कोई अपनी जिम्मेदारी पहचानता या कहूँ तो जानता ही नहीं है. और इसके साथ-साथ हम इस तथ्य को भी अनदेखा नहीं कर सकते, कि हमारे करने के लिए रखा ही क्या है. नो डिबेट ओनली एक्शन के मूल मंत्र में हमें डिबेट की तो संभावनाएँ पता हैं, पर एक्शन की नहीं. आम जनता को सलाह दी जाती है, कि आप अपने आस-पास कुछ भी संदिग्ध चीज देखे, तो तुंरत इत्तिला करें, कानून-व्यवस्था में सुधार में अपना सहयोग प्रदान करें. ये सारी बातें अमल में नहीं आ पाती हैं.

वैसे आतंकवाद को कुछ तो प्रश्रय हमारे बीच से भी मिलता है. हमारी वर्गभेदी सोच भी लोगों को इस मुद्दे पे हममें साथ नही रख पाती है. आतंकवाद से लड़ने में हमें कुछ हद तक अधिनायकवादी भी होना पड़े, तो इसमे कोई गुरेज नहीं होना चाहिए. हमारे समाज के वैसे छद्म मानवाधिकारवादी, जिन्हें मुठभेड़ में मारे गए आतंकवादियों के मानवाधिकार की चिंता सताती है, क्या उन्हें उन आदमियों के इस तरह के अधिकार की कोई चिंता नहीं है. आतंकवाद की दोहरी परिभाषा गढ़ कर लोगों को दिग्भ्रमित ही किया जाता है. क्या ग़लत है, और क्या सही है. इसकी कोई हद ही नहीं है. राजनेताओं को भी ऐसे मौकों पर अपने क्षुद्र स्वार्थ की चिंता नहीं करनी चाहिए. यह बात कि "युद्ध के समय शान्ति की बात बेमानी है " इसे थोड़ा और बदलना चाहिए. १९४७ से लेकर आज तक तो हम इसी शान्ति-पाठ का सुमधुर वाचन हर एक घटना के बाद करते चले जाते हैं. कुछ दिनों पहले मेरे पास एक मोबाइल संदेश आया था- १९७० से लेकर अब तक ४५५५ से भी ज्यादा आतंकवादी घटनाएं हो चुकी हैं. यह क्या दिखाता है. ऐसा नही है कि आवाज सिर्फ़ इस बार ही उठ रही है. हर बार उठी आवाज को किसी समिति के रूप में आश्वासनों का जामा पहना कर हमें भुलावा दे दिया जाता है. हर बार के सुधार आयोग की रिपोर्ट पड़ी-की-पड़ी रह जाती है. एक्शन की बात ऐसे बिन्दुओं पे उठे, तो यह ज्यादा अच्छा होगा. वीआईपी की सुरक्षा पर करोड़ों के खर्च से बेहतर है, कि उतने से कम खर्च में पूरे तंत्र की ही चिकित्सा की जाए और इलाज़ में लगने वाले करोड़ रुपयों के बदले उतने से "सतर्कता ही बचाव" के पुराने नारे पर अमल किया जाए. सुरक्षा व्यवस्था का मनोबल बढ़ाने के लिए उन्हें संसाधनों से लैस करना होगा. वरना पुरानी राइफल से अत्याधुनिक हथियारों का सामना करने ही हिम्मत कौन उठा सकता है, मेरी समझ से हममें से कोई भी नहीं. वे जो मरे या लड़े, वो भी हमारे ही बीच के थे, कोई अतिमानवीय शक्ति-संपन्न नहीं, जिन्हें बिना उचित संसाधन और मनोबल प्रदान किए हम उनसे सिर्फ़ उनके कर्तव्यपालन की उम्मीद लगाये बैठे रहें. आतंकवाद के इलाज़ के लिए पोटा जैसे क़ानून को उनके मानवाधिकार की दुहाई देकर निरस्त कर दिया जाता है, तो फिर हम उस व्यवस्था से क्या उम्मीद करें, की वो सही मायने में अब भी इसके खिलाफ तनकर खड़ी हो सकती है. बांग्लादेशी घुसपैठिये, जो भारत की जमीं पर कई भारतविरोधी गतिविधियों में संलिप्त होते रहे हैं, उनपर दशकों से कोई कारवाई नहीं हुई है. बस देश की जनता को यह कह कर गुमराह किया जाता है कि ऐसी कोई गंभीर समस्या नहीं है. वे कुछ मुट्ठीभर हमारे भाई हैं, जो काम और रोटी की तलाश में हमारे यहाँ आए हैं. हमारे सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस घटना का संज्ञान लेते हुए इस इससे निबटने को कहा भी, परन्तु वही ढाक के तीन पात. आसाम छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष सोनोवाल महोदय लंबे समय से इसकीख़िलाफ़ अभियान छेड़े हुए हैं. जब एक उस स्तर के व्यक्ति के दशकों लंबे संघर्ष का कोई प्रतिफल नही निकला, तो आम जनता क्या मनोबल लेकर आगे बढेगी. और हममें से किसी से भी यह छुपा नही है कि बांग्लादेशी घुसपैठिये भारत में आतंकवाद के लंबे जाल का एक अहम् हिस्सा हैं. कुछ दिनों पहले मुझसे एक बात कही गई थी, कि हम ही इनके शिकार क्यों होते हैं, इसका मेरे पास बस एक यही जवाब था- हमारी अंधी सहिष्णुता. सहिष्णुता को भी फिर से परिभाषित किए जाने की जरुरत है, की उसका उल्लेख किस संदभ में हो, और कहाँ हो. जब हमारा अस्तित्व ही नही, रहेगा तो हम अपनी महान सहिष्णुता का पाठ भी साथ में लिए चले जायेंगे.
सीधे कहूँ, तो हमें अब "प्रतिक्रियावादी (reactionist)" की जगह "पूर्वक्रियावादी (pro-actionist)" हो जाना चाहिए।

1 टिप्पणियाँ:

karmowala 14 फ़रवरी 2009 को 7:59 am बजे  

वीआईपी की सुरक्षा पर करोड़ों के खर्च से बेहतर है, कि उतने से कम खर्च में पूरे तंत्र की ही चिकित्सा की जाए और इलाज़ में लगने वाले करोड़ रुपयों के बदले उतने से "सतर्कता ही बचाव" के पुराने नारे पर अमल किया जाए आप का कहना बिल्कुल सही है और जिस दिन ऐसा होने लगेगा मै दावे के साथ कह सकता हूँ की उस दिन देश मै आतंकवाद का नामोनिशान नही रहेगा बल्कि रामराज्य जैसा वक्त होगा

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