मंगलवार, 27 जनवरी 2009

महिला उत्पीड़न के मनोवैज्ञानिक आयाम



[डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव
]

नीति, न्याय और सत्ता का तथाकथित कर्ताधर्ता पुरुष नहीं चाहता कि उसकी सत्ता को कोई चुनौती दे। अपनी इस सत्ता को बरकरार रखने के लिए उसने स्त्री को पराश्रित, पराधीन बनाने के लिए सदियों से विज्ञान, कला, संस्कृति, दर्शन, चिंतन की दुनिया से इसलिए दूर रखा ताकि वह शिक्षित, चेतन, सजग, आत्मनिर्भर न बन सके क्योंकि उसे सदैव डर बना रहता है कि स्त्री अपने स्वत्वाधिकारों की मांग न करने लगे ? इसलिए उसे निरक्षर, चेतना रहित बनाकर रखना पुरुष सत्ता के लिए अनिवार्य सा हो गया है। सोलहवीं शताब्दी की सामंती सोच पुरुषों में आज भी कायम है। आधुनिक युग में सोचने की दशा एवं दिशा बदली है। २१वीं सदी में 'स्त्रीधर्म' की बातें सुनते-सुनते पुरुष वर्चस्ववादी मानसिकता तथा शील एवं सेक्स की मर्यादाओं को तोड़कर स्त्रियों ने पुरुषों के समक्ष एक मनोवैज्ञानिक प्रश्न खड़ा कर दिया है कि अब बात 'पुरुष धर्म' की भी होनी चाहिए ? समस्या की मूल जड़ यहीं से आरम्भ होती है।

जिस पश्चिम उपभोक्तावाद को अक्सर हम समाज की मूल्य विहीनता के लिए दोषी ठहराते हैं, उससे जन्मी नई जीवन शैली में स्त्री उत्पीड़न कम होना चाहिए, पर ऐसा इसलिए नहीं हो पा रहा है क्योंकिें स्त्रियों के मामले में हमारा यह समाज चेतना के स्तर पर सामंती है। शैक्षिक और आर्थिक विकास ने एक नया पाखण्ड पूर्ण मानस बना दिया है। यहां कहीं न कहीं हमारी नियति में खोट है। यह बात कुछ हद तक सही भी हो सकती है कि पुरुष वर्चस्व और सामंती उत्पीड़न के खिलाफ स्त्रियों में बढ़ रहे प्रतिरोध के कारण उन पर हिंसा भी बढ़ रही है। यह प्रतिरोध ग्लोबल चेतना के कारण बढ़ा है। एक ओर तो हम आधुनिकता की बात करते हैं, बदलाव की बात करते हैं, पर विचारों व मानसिकता में जो बदलाव अपेक्षित है वह बदलाव आज तक नहीं आया। जब-जब स्त्री अधिकारों की बात आती है तो परम्पराओं के नाम पर उसका हनन होता है।

देश के महानगरों और महानगर बनने की कगार पर खड़े नगरों में कास्मोपॉलिटिन संस्कृति का प्रभाव उठान पर है इससे पुरुषों में यौन कुंठा और निराशा दोनों बढ़ी है। नगरों में स्त्रियों के साथ बढ़ रही छेड़खानी और बलात्कार की घटनायें इसकी अभिव्यक्ति है। स्त्रियों से ये छेड़खानी और यौन दुव्र्यवहार की घटनायें लगातार बढ़ती जा रही हैं। सामाजिक जागरूकता और विकास के आंकड़े कुछ भी कहें, हकीकत यह है कि स्त्रियों के प्रति परम्परागत पुरुषवादी रवैये में कोई बदलाव नहीं आया है। आखिर खोट कहां है, इसके पीछे कौन से समाजशास्त्रीय कारण हंै ? आखिर इस बढ़ती उच्छंृखलता के लिए कौन दोषी है ? वर्तमान परिदृश्य से देखें तो आबादी निरन्तर बढ़ रही है साथ ही आर्थिक परिदृश्य भी बदल रहा है। लाखों लोग गांवों, कस्बों और छोटे शहरों से बड़े शहरों की तरफ आ रहे हैं। औद्योगिक क्षेत्रों में रोजगार के लिए आने वाली यह आबादी बहुत सी चीजें पहली बार देखती है। दरअसल बहुत से लोग पहली बार, पहली पीढ़ी के रूप में शहर आए होते हैं, इन्हें लगता है जो स्त्रियां जींस पहनती हैं, पॉश कालोनियों में रहती है।ं वे अनैतिक होती हैं या जो महिला सहकर्मी इनके साथ कार्यालयों में या सार्वजनिक स्थलों पर खुलकर बातें करती हैं या एक ही कक्षा में साथ-साथ अध्ययनरत हैं उसका भी ऐसे लोग दूसरा अर्थ निकालते हैं। अनेक और भ्रम उनके मन में होते है। ऐसे ही ये भिन्न प्रकार से उत्पीड़न की घटनायें करते हैं। रही बात लालच या दबाव देकर शोषण की तो अवसर के नाजायज लाभ तो उठाए ही जा रहे हैं। इसका प्रमुख कारण है कि वर्तमान में पुराना सामाजिक ढांचा चरमरा रहा है। शहरों में अपनत्व की भावना एवं जानकारी का अभाव रहता है। पहले ग्रामीण संस्कृति थी तो लोग एक दूसरे को जानते पहचानते थे और सामाजिक भय से ऐसी हरकतें करने से डरते थे।

आज हमारा समाज मोनोटाइजेशन की तरफ बढ़ रहा है, संस्कृति में गिरावट आ रही है और लोग निरंकुशता की ओर अग्रसर हो रहे हैं। उन्हें लगता है कि वे कुछ भी गलत करके भाग सकते हैं लिहाजा ऐसी घटनाओं में बढ़ोत्तरी हो रही है। इन्हें लगता है कि कोई कुछ करेगा नहीं, पुलिस करप्ट है, कानून व्यवस्था पैनी नहीं है। अधिकारियों और नेताओं को लगता है कि वे सत्ता में है, कोई उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकता और ऐसे में वे अपनी इच्छानुसार गलत कार्य करने से परहेज नहीं करते। स्त्रियां आज के आधुनिक दौर में जिस प्रकार हिंसा का शिकार हो रही हैं, वह समाज व सरकार के लिए चुनौती है, परन्तु यहां वास्तविकता यह है कि पुरुष प्रधान समाज स्त्री की सत्ता को पचा नहीं पाता। उसे लगता है कि स्त्री गम्भीरता से काम नहीं करती। जबकि स्त्री पर जिम्मेदारियों का बोझ अधिक होता है। घर से लेकर बाहर तक वह अपनी जिम्मेदारियां समझती है। वह कुछ बेहतर करना चाहती भी है तो करने नहीं दिया जाता। सामाजिक प्रतिबंध और राजनीतिक प्रतिरोध के चलते स्त्रियों का अधिक विकास अभी भी जैसा होना चाहिए नहीं हो पाया है। पुरुष प्रधान समाज ने स्त्रियों को आगे बढ़ने से रोका है।

वर्तमान की बात कत करें तो उदारीकरण और स्त्री मुक्ति के इस दौर ने एक और तो स्त्रियों के लिये बंद कई दरवाजे खोल दिये हैं, साथ ही घर से बाहर निकलकर अपनी पहचान बनाने के लिए अवसर तो दिए लेकिन दूसरी तरफ स्त्रियों के लिए दिखावा नामक एक जंजीर भी पैदा कर दी है उपभोक्तावाद और प्रदर्शनवाद ही उसका जीवन सिद्धान्त बन गया और वर्ग का बंटवारा एवं संस्कृति का स्तर तय किया जाने लगा क्योंकि मध्य निम्न तथा उच्च वर्ग की स्त्री के बीच आधारभूत अंतर यह है कि उच्च वर्ग की लड़की जब मारी जाती है, तो वह रसोई में जलती नहीं बल्कि गोली से मारी जाती है या छुरे से। उसकी मौत रसोई में नहीं बल्कि होटल में होती है या फिर सड़क पर क्योंकि उसकी जीवन शैली भिन्न है। यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि उच्च वर्ग की स्त्रियों का शिक्षित और आधुनिक होना गलत नहीं है, पर आधुनिकता की इस अंधी दौड़ में आधुनिक परिवार के स्त्री पुरुष शारीरिक सम्बन्धों को सिर्फ मनोरंजन भर मानते हैं और यही सम्बन्ध उन्हें एक दिन मरने पर मजबूर कर देते हैं। यहां इसके पीछे एक कारण यह है कि स्त्रियां पुरुषों से बराबरी करने के लिए नयी जीवनशैली को अपनाती हैं जिसके कारण उनके अंदर एक अंतद्र्वन्द्व चलता रहता है कि क्या करें क्या न करे ? जिससे वे अपने मातृत्व व पारिवारिक जिम्मेदारियों के निर्वाह से अलग हो जाती है यहीं से पारिवारिक कलह की शुरूआत होती है, जहां एक ओर तो इन्हें बच्चों का मोह रहता है, तो दूसरी ओर वे सोचती हैं कि बच्चे उनकी स्वतंत्रता और प्रगति में अवरोधक हैं इसके लिए जरूरी है स्वयं को व्यवस्थित करना।

उच्च वर्ग की पहली और आखिरी विशेषता होती है धन। वह जमाना गया जब धन कमाने में काफी समय लगता था और कड़ी मेहनत करनी पड़ती थी। अब भी जिसे ईमानदारी से धन कमाना है उसके लिए यही रास्ता है लेकिन काला धन बटोरने के लिए कई रास्ते खुल गये हैं क्योंकि अब का नियम है कि वह जिस रास्ते से आता है उसी रास्ते से जाता है। इसलिए काला धन भी काले रास्ते से जाता है लेकिन जाते-जाते अपनी चपेट में स्त्रियों को ले जाता है। आखिर इसकी वजह क्या है ? वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखें तो स्त्रियों में शिक्षा स्तर बढ़ा है लेकिन यह शिक्षा उन्हें वैज्ञानिकता, कलात्मकता या सृजन की तरफ नहीं उच्ंछृखलता की ओर ले जा रही है। मदिरापान, क्लब एवं पब संस्कृति और अद्र्धनग्नता को ही सबलीकरण का मापदण्ड माना जा रहा है जबकि पुरुषों के लिए मापदण्ड हमेशा अलग ही रहे। अद्र्धनग्नता किस तरह हमारी पहचान बनी इसे इस बात से समझा जा सकता है कि पहले सिनेमा की हीरोइन कभी 'कैबरे' नहीं नाचती थी। आज यदि वह काम और किसी को मिला तो हीरोइन डरती हैं कि इमेज फीकी हो गयी। प्रदर्शन की इस चाह ने तत्काल स्त्रियों को दो जरूरतों में बांध दिया। पहली जरूरत यह कि उसके पास पर्याप्त पैसे हों और दूसरी यह कि वह सदा आमंत्रक, लुभावनी लगती रहे। देखें तो दोनों बातें एक दूसरे की पूरक भी हैं। किसी उच्च शिक्षित स्त्री के पास ये दोनों हों तो वह क्या नहीं कर सकती है? इसका एक उदाहरण हमारे जेहन में बड़ी गहराई से छाया हुआ है। वह है, एनरॉन की चर्चित रेबेका मार्क, जिसने भारतीय शासन प्रशासन के कई दिग्गजों कोे सामदाम, दंडभेद के प्रयोग से नाच नचा दिया और मंतव्य पा ही लिया लेकिन हमारे देश की स्त्रियों के लिये वैसी बात करना कल्पना से भी परे है। फिर किस बात का सबलीकरण ? अधिकतर महिलाओं का सपना क्या होता है ? यही कि पार्टियों की रौनक बनी रहे। उनके पास कारें तथा सुविधा के अन्य साधन हों और वे जीवन का भरपूर आनंद उठायें, मीडिया और विज्ञापनों ने भी इसे खूब बढ़ावा दिया है उसने तो एक और सपना भी जोड़ दिया। टी. वी. स्क्रीन पर झलकने का। क्या ऐसे सपने गलत हैं ? शायद नहीं, तो फिर विसंगति कहां है ? विसंगति यही कि सपने को अपना हक माना जाता है, चाहे योग्यता हो या न हो। जब योग्यता नहीं होती तो माना जाता है कि रूप और यौवन उनके पर्याय हैं जहां धन और सुविधायें है उनका उपयोग योग्यता बढ़ाने में नहीं बल्कि आनंद उठाने और मौजमस्ती में ही सार्थक समझा जाता है। यह वह दौर है जिसमें सब कुछ जायज है, यहां तक कि विवाहेत्तर सम्बन्ध भी लेकिन यहां फिर पुरुष अहंकार को चोट लगती है। खानदान की इज्जत का सवाल उठाया जाता है और कटारा कांड भी हो जाता है। इन सम्पूर्ण घटनाओं के पीछे उच्च वर्ग का पुरुष कहां है ? उसे धन और आनन्द के साथ-साथ सत्ता की भी लालसा है, जिसके लिए स्त्री सीढ़ी बन सकती है। विरोध करने पर उसे तंदूर में जलाया जा सकता है और सजा की चिन्ता क्यों हो ? आखिर पैसे के बल पर मुकदमे की सुनवाई को जितनी मर्जी हो घसीटा जा सकता है क्योंकि आज धन, सत्ता और उनमुक्त आनन्द का त्रिकोण बन गया है अधिकतर स्त्रियों को यह झटपट चाहिए। हर बड़े महानगरों में कई फार्म हाउस पार्टी और पब के अड्डे बन चुके हैं जहां मदिरा है, रूप यौवन है और एक फलसफा है कि असली जिन्दगी यही है। कभी-कभी जब वहां से झूमते-झूमते बाहर निकले लड़के-लड़कियां कार दुर्घटना में किसी की जान ले लेते हैं तो दो-चार दिन हो हल्ला मचता है और अन्मुकता फिर अवाध गति से चलने लगती है। कभी किसी जेसिका की जिद को समाप्त करने के लिए इतने सहज भाव से गोलियां दग जाती है, मानों यह कोई रोजमर्रा की बात हो। कोई नहीं पूंछता कि क्या गोली चलाने वाला हमेशा से इसका आदी है। यह वास्तविकता है कि यह उन स्त्रियों के हिस्से में दुष्परिणाम आया, जो एक ओर तो उन्मुक्कता की दुनिया की लालसा में थीं पर दूसरी ओर अपने वजूद के लिए विद्रोह भी कर रही थीं यह भूलकर कि वजूद अपनी योग्यता और कुशलता से बनता है, केवल शराब और सेक्स के दर्शन से नहीं।

हम कितना ही प्रगतिशील होने का ढोंग क्यों न करें, सच यह है कि हमारी मानसिकता स्त्रियों के प्रति हमेशा दकियानूसी रहती है पुरुष मानता है कि स्त्री का स्थान घर की चारदीवारी के अंदर ही है। 'नताशा कांड' पर एक नामी गिरामी वकील ने टी. वी. कैमरे के सामने टिप्पणी की कि वह आधी रात के समय घर से बाहर क्या कर रही थी, वह मां थी उन्हें अपने बच्चों के साथ होना चाहिए था। यह एक कटु सत्य है कि जब पुरुष ही आज सड़क पर सुरक्षित नहीं है तो मध्य रात्रि में सड़क पर अकेली स्त्री कैसे सुरक्षित रह सकती है ? मुख्य समस्या यहां यह है कि स्त्री, पुरुष की बराबरी का दम भरने के लिए नयी जीवन शैली अपनाती है परन्तु इस शैली को अपनाने के लिए उन्हें अपनी जिम्मेदारियों का ज्ञान और अहसास नहीं होता है। यहां एक दूसरी बात जो नयी घटित हुई है वह यह कि हिंसा और लूट में अब स्त्रियों ने भी हिस्सा लेना शुरू कर दिया है इसलिए अब वे इन सबकी शिकार भी हैं और हिस्सेदार भी। भारत में हर बात के लिए पश्चिम को दोषी ठहराने का रिवाज है, पर विकसित समाजों में उतना स्त्रियों पर अत्याचार नहीं होता जितना सामंती समाजों में होता है। भारतीय समाज में पुरुषों की सामंती मानसिकता का मूल संकट भी यही है कि एक ओर उसे पवित्रता और आज्ञाकारी पत्नी चाहिए तो दूसरी ओर शाम को एक आधुनिक स्त्री। पिछले कुछ दशकों में हुए बड़े सामाजिक आर्थिक बदलावों के बाद महिलाओं का जो शिक्षित और स्वावलम्बी तबका विकसित हुआ है वह एक साथ इन दोनों जरूरतों को पूरा करने में पिस रहा है। उच्च वर्ग का पुरुष शाम की पार्टियों में दूसरी स्त्रियों के साथ ड्रिंक और ड्रांस तो करना चाहता है, पर जैसे ही उसकी अपनी पत्नी या बहन, बेटी किसी दूसरे के साथ ड्रिंक और ड्रांस करने लगती है, तो वह क्रोधित हो जाता है यानी आर्थिक विकास और गतिशीलता के बावजूद सामंती चेतना नहीं टूटी है। मूल समस्या यहीं है क्योंकि स्त्री; पुरुष प्रधान समाज की एक कृति है वह अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए स्त्री को जन्म से ही अनेकों नियमों के ढांचे में ढालता चला गया। सौन्दर्य, भाव संवेदना, सेवा-साधना, अशीम धैर्य, अनन्त ममत्व और बोधगभ्यता जैसी अनेकानेक विशेषताओं के रहते हुए भी स्त्रियों को इतने प्रतिबंधों दबावों के बीच रहने के लिए क्यों बाधित होना पड़ रहा है ? इसका एक समाजशास्त्रीय कारण यह है कि प्रबल पर सबल हमेशा भारी रहा है और संत्रस्त लोग आपस में ही निपटते रहते हैं। यह उदाहरण स्त्री वर्ग में ही बहुलता के साथ चरितार्थ होते देखा जाता है क्योंकि अक्सर देखा गया है कि कन्या के जन्म पर पिता की तुलना में माता को अधिक दु:खी होते देखा गया है। वही पुत्र को अधिक दुलारती और सुविधा देती देखी गयी है। सास-बहू की लड़ाई कुत्ता-बिल्ली के वैमनस्य की तरह प्रख्यात है। ननद का व्यवहार भी भाभी के प्रति ऐसा ही रहता है, मानो उसे जीवन भर ननद का रुतवा ही प्राप्त रहेगा, कभी किसी की भाभी बनने का अवसर आएगा ही नहीं। दहेज अधिक लेने का आग्रह और न मिलने पर आक्रोश प्रकट करने में वे ही पुरुषों की तुलना में अग्रणी रहती हैं। नारी प्रगति के लिए कुछ किये जाने का प्रसंग जब कभी सामने आता है तो इसमें अधिक विरोध, व्यवधान घर की बड़ी बूढ़ी कहीं जाने वाली महिलायें ही बनती हैं। इस मनोवृत्ति को क्या कहा जाये कि जिनकी लड़कियां काली कुरूप हैं वे तो किसी सुंदर लड़के को हाथ सौंपना चाहती है, किन्तु अपने काले कुरूप लड़के के लिए सुन्दर बहू तलाश करती हैं। नाक-नक्श में तनिक भी कमी रहने पर वे ही नापंसद करने में अग्रणी रहती हैं, जिनकी अपनी बच्चियां पराये घरों की तुलना में भी अधिक हल्की पड़ती ह।ै। बेटी और बहू के साथ होने वाले बरताव में जमीन आसमान जैसा अंतर रहने का निमित्त कारण उस घर के पुरुष नहीं बनते, जितना कि महिलायें जमीन-आसमान सिर पर उठाए रहती हैं।

निर्विवाद रूप से यह कहा जा सकता है कि स्त्री उत्पीड़न की यह मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया घर की दैहरी से लांघकर सम्पूर्ण समाज को अपनी मुट्ठी में कसती चली जा रही हैं क्योंकि आज छोटे परदे से लेकर बड़े परदे तक एवं अखबारों पत्र-पत्रिकाओं सभी में नारी देह को भोग्या के रूप में प्रस्तुत किया गया है। नग्न देह के लिए वह उत्पाद की प्रचारक बन गयी है। मसाज पार्लर, फ्रेंडशिप क्लब,सौन्दर्य प्रतियोगितायें और इण्टरनेट के जरिये स्त्रियों की देह का बाजार चलाया जा रहा है, चाहे सौन्दर्य उद्योग हो या सिनेमा अथवा व्यवसाय, सब पर पुरुषों का कब्जा है। इसलिए उन्होंने नारी शरीर का बाजारीकरण करके अपना ब्रांड बेचने का जो अंतहीन सिलसिला शुरू किया जिसका कुप्रभाव स्त्रियों पर उत्पीड़न (छेड़छाड़, बलात्कार, अमानवीय कृत्य) विविध रूप से हमारे समक्ष घटित हो रहा है। उत्पीड़न से बचने के लिए पुरूष को आज अपनी परम्परावादी मानसिकता को बदलना होगा इसके साथ ही महिलाओं को अधिक महत्वाकांक्षा का त्याग कर व्यवहारिक धरातल पर कुछ समझौते करने होगें।

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(लेखक डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव हिन्दी विभाग डी. वी. कालेज, उरई (जालौन) में वरिष्ठ प्रवक्ता हैं)

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