मंगलवार, 23 सितंबर 2008

कुरुक्षेत्र- एक युगांतरकारी रचना


  • डॉ. विद्यारानी
भारतवर्ष की पवित्र भूमि "कुरुक्षेत्र" जहाँ अन्याय के प्रतिकार में न्याय का युद्ध हुआ था, जहाँ समुदायगत राग द्वेष को महसूस करके अन्याय करने वालों को समाप्त किया गया था, वही कुरुक्षेत्र 'श्री रामधारी सिंह दिनकर' के काव्य का वर्णन स्थल है. दिनकर ने कुरुक्षेत्र के निवेदन में लिखा- 'कुरुक्षेत्र की रचना भगवान् व्यास के अनुकरण पर नहीं हुई है और न महाभारात को दुहराना ही मेरा उद्धेश्य था, मुझे जो कुछ कहना था वह युधिष्ठिर और भीष्म का प्रसंग उठाए बिना कहा जा सकता था, किंतु तब वह रचना शायद प्रबंध के रूप में नहीं, उतरकर मुक्तक बनकर रह गई होती."
कुरुक्षेत्र प्रबंध है या नहीं यह भी विद्वानों के लिए विमर्श का प्रश्न रहा है. प्रबंध के शास्त्रीय लक्षणों का तो उसमें नितांत अभाव है, न प्रबंद कौशल, न कैनवास न घा तानाक्रम न पात्रों की उदात्तता. इसमें निर्वेद भाव से प्रभावित युधिष्टिर को भीष्म द्वारा वीर धरम की शिक्षा दी गई है. इसी बहाने कवि ने युद्ध, शान्ति हिंसा, अहिंसा, वीरता, कायरता जैसे विषयों पर संवाद करवाया है. कुरुक्षेत्र व्यंग से परिपूर्ण प्रबंध काव्य है जो विचार के तारतम्य से रचित है, इसलिए कहा जाता है कि कुरुक्षेत्र का प्रबंदात्व उसके विचारों से है, जुन्हें दिनकर ने अत्यन्त कुशलता से व्यक्त किया है।

आर्चारी नलिन विलोचन शर्मा ने लिखा है- "काव्य का विचार तत्व रसतत्व के स्तर पर आरूढ़ हो सका है तो कुरुक्षेत्र काव्य की संज्ञा का अवश्य ही अधिकारी है."

विश्वयुद्ध की विभीषिका से समत्रस्त, मानवतावाद के समर्थक राष्ट्रकवि दिनकर को युद्ध, शांती, अहिंसा, हिंसा, कर्तव्य, वीराधर्म जैसे विषयों पर अपनी बातें कहने का एक मंच चाहिए था, विश्वयुद्ध ने मानवता को झकझोर डाला था. आधुनिक वैज्ञानिकों, आयुद्धों के प्रयोग की विभीषिका ने भी कवि को विज्ञान एवं कला पर विचारने के लिए बाध्य किया था. युद्ध की विभीषिका के चित्रण के लिए महाभारत से अधिक सुयोग्य कौन सी कथा हो सकती थी, इसलिए उन्होंने महाभारत के दोनों पात्रों को अपने विध्वंस की विकारालता को देखकर सिहलित अहं. भीष्म जो अपने प्राण में बंधे दर्योधन के साथ एवं ह्रदय से पांडवों के साथ थे. वे धरम के उदघोषक के रूम में आए हैं.

कवि ने लिखा है-
"धरम स्नेह दोनों प्यारे थे बड़ा कठिन निर्णय था
अथ एक को देह, दूसरे को दे दिया ह्रदय था.
धरम पराजित हुआ स्नेह का डंका बजा विजय का
मिली देह भी उसे दान था, जिसको मिला ह्रदय था."

अर्जुन से संधान कारवाँ के जो भीष्म छ महीने तक शरशय्या पर रहें वो भी इसी ग्लानी का पश्चात्ताप था की उन्होंने आजीवन अन्याय का साथ दिया. इसलिए हे अर्जुन मेरा यह शरीर भी अब तुम्हारा है इसे शर से बैठ कर अन्याय का साथ देने का दंड दे डालो. कवि ने पांडवों के पराती भीष्म के प्रेम की मंदाकिनी पर बिल्कुल नए ढंग से सूक्ष्म दृष्टी डाली है.

महाभारत के पश्चात् युधिष्ठर निर्वेद भाव से प्रभावित हो उठे हैं. उनके मन में यह प्रश्न उठता है की लाशों से पटा रणक्षेत्र "विजय" जैसे छोटे शब्द के पलडे में कैसे आ सकते हैं. युद्ध क्रूर कर्म है, जिसका दायित्व किस पर दिया जाए यही विचारणीय प्रश्न है. युद्ध के दो पक्ष होते हैं. एक वो जो अन्तियों का जाल बिछाया करता है और दूसरा वो जो अन्याय सहता नहीं बल्कि प्रतिशोध करता है. युधिष्ठर का मन रक्तपात से विषाण हो चुका है, वे युद्ध को बेकार समझने लगे हैं, भीष्म जीवन का आदर्श वीरता को मानते हैं.

कुरुक्षेत्र में मानव नियति एवं सामाजिक विषमता पर व्यंग एवं नस-नस में उताश की ज्वाला जला सकने की शक्ती से परिक्पूर्ण पंक्तियाँ मिलाती हैं. दिनकर राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना के सक्षम कवि हैं. कुरुक्षेत्र में और व्यगंग का अद्भुत समन्वय द्रष्टिगोचर होता है. भीष्म का एक एक वाक्य उसके व्याक्तिव्त्व की वीरता का परिचय है साथ ही मानव ह्रदय की कोमलता एवं कायरता पर उन्होंने जो व्यंग किया है वह कवि की व्यंगार्थ शक्ति का दायोतक है.
कुरुक्षेत्र में कवि ने मानवता का जयगान किया है, मानवता ही आज का युगाधरम है. कवि को मानवता के विजय में अखंड विश्वास है, मानवता का नव प्रदीप जिस दिन प्रज्वलित होगा, उसी दिन संसार के मनुष्यों को उसके प्रकाश में जीवन के सत्य शिव एवं सुंदर स्वरुप का समाधान मिलेगा. कवि ने मानव जाति के उज्जवल भविष्य का स्वप्न देखा है. उसका जीवन दर्शन उसकी आतंरिक आस्था का प्रतीक है.

"आशा के प्रदीप जलाए चलो धरम राज
एक दिन होगी मुक्त भूमी रंभिती से.
स्नेह बलिदान होंगे माप नरता के एक
धरती मनुष्य की बानगी स्वर्ग प्रीति से."

कवि ने आशावादी जीवन दर्शन का परिचय देते हुए जीवन का जयगान किया है. कुरुक्षेत्र की रणभूमि के ध्वंस पर मानवता की गौरवाशाली गरिमा को स्थापित किया है. कुरुक्षेत्र एक युगान्त्कार करती है. विचारों के स्तर पर प्रबंधात्मकता को लाकर कवि ने एक नवीन प्रयोग किया है. प्रबंध कौशल में शैथिल्य का दोष जो विभिन्न विद्वानों द्वारा लगाया गया है. वह कवि के ओज एवं व्यंग से पूर्ण विचारात्मक पंक्तियों की धार से मिट जाते हैं. पाठक एक बार सोचने के लिए बाध्य हो जाता है कि प्रबंधात्मकता ऐसी ही आ सकती है.

आचार्य नलिन विलोचन शर्मा ने युधिष्ठर एवं भीष्म को "दिनकर के लिए ध्वनि विस्तारक यंत्र कहा है, अगर ऐसा भी है तो इस यंत्र ने धारा प्रवाह ऐसी पंक्तियाँ कहीं हैं जो कुरुक्षेत्र को युगाधर्म का संवाहक, मानवता के उज्जवल भविष्य का संदेश वाहक सिद्ध कर देता है. कविवर रामधारी सिंह दिनकर का दर्शन आशावादी है. उन्होंने कुरुक्षेत्र में आस्था की अलख जगाई है।

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