मंगलवार, 23 सितंबर 2008

क्या हमें प्रसन्न होने की आज़ादी है?



डॉ
. कुमारेन्द्र सिंह सेंगर

बात स्वतन्त्रता की होती है तो कई बार मन काचो उठाता है कि हम किस प्रकार की स्वतन्त्रता के आयोजन की चर्चा कर रहे हैं? अपने आसपास निगाह डालने पर ज्ञात होता है कि हम जिस स्वतन्त्रता की बात कर रहे हैं, जिस स्वतन्त्रता के आयोजन में मगन हैं वह असल स्वतन्त्रता तो कहीं गयाब है. कई बार लोग स्वतन्त्रता के नकारात्मक पहलुओं को बताने पर दिमाग के नकारात्मक होने की बात कह कर असल समस्या से मुंह मोड़ना चाहते हैं. क्या समस्या से दूर भागना समस्या का निदान है? क्या हमारी स्वतन्त्रता का तात्पर्य केवल हमारी सुख-सुविधाओं से है? क्या हमारी स्वतंत्रा का अर्थ अमीर के और अमीर होने तथा गरीब के और गरीब होने से है?

जब भी स्वतन्त्रता की चर्चा होती है तो एक घटना न चाहते हुए भी याद आ जाती है. जो उन बुजुर्गवार लोगों द्वारा सुनाई गई है जिन्होंने आज़ादी का असल अर्थ समझा है. घटना यूँ है कि देश को स्वतन्त्रता मिलाने के बाद पथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू इलाहबाद के कुम्भ मेले में घूम रहे थे. उनके चारों तरफ़ लोग जयकारे लगाते हुए चल रहे थे. अचानक एक बूढी औरत भीड़ को चीरते हुए नेहरू जी के पास आयी और बोली-" नेहरू! तू कहता है कि देश आजाद हो गया है, क्योंकि तू बड़ी-बड़ी गाड़ियों के किले में चलने लगा है, पर मैं कैसे मान लूँ कि देश आजाद हो गया है? मेरा बेटा अंग्रेजों के ज़माने में भी बेरोजगार था और आज भी है. फ़िर आज़ादी का फायदा क्या?" नेहरू जी अपने चिरपरिचित अंदाज़ में मुस्कराए और बोले- "माता! आज तुम अपने देश के मुखिया को बीच रास्ते में रोककर 'तू' कहकर बुला रही हो, क्या यह इस बात का परिचायक नहीं कि देश आजाद हो गया है एंव जनता का शासन स्थापित हो गया है." इतना कहकर नेहरू जी अपनी गाडी में बैठे और चले गए.

इस
घटना को जब भी याद किया जाता है, तो ये निषकर्ष निकलता है कि, यहाँ माता भी अपनी जगह सही अहं हैं और नेहरू भी. अब सवाल उठता है कि यदि दोनों सही हैं तो फ़िर ग़लत कौन है? आज़ादी के छः दशक बीत जाने के बाद भी अधिसंख्यक युवा पीढे बेकारी की समस्या से डॉ-चार हो रही है; किसान आज भी उसी तरह भुखमरी का शिकार है जैसे कि आज़ादी के पूर्व हुआ करता था. पेट की आग उसे आज भी आत्महत्या करने को मजबूर कर रही है. येसी स्तिथियों में क्या हम गर्व से स्वीकारने का माद्दा रखते हैं कि हम वास्तविक रूप में आजाद हैं.?

यह
बात सही है कि आज़ादी के इतने लंबे समय में हमने विकास के कई सोपान तय किए तो कई नए सोपानों का निर्माण भी किया है. स्वतंत्रता के बाद की बदहाल व्यवस्था को एक दिशा प्रदान की, छोटी-छोटी रियासतों को एकसूत्र में बांधकर देश को लोकतांत्रिक स्वरुप प्रदान किया. हमें एक संविधान प्रदान किया. इन सुविधायों के अनुपात में देखें तो हमें इनकी कीमत बहुत ही ज्यादा चुकानी पडी. हमने रेलवे को तेज़ गति से दौड़ना शुरू किया तो दुर्घटनाओं को भी न्योता दिया. जितनी तेज़ी सी कारखानों, मीलों, उद्योगों की स्थापना की उसी तेज़ी से बेरोजगारों की संख्या में बढोत्तरी भी की है. जिस तरह हम विश्व समुदाय के सामने ख़ुद को स्थापित कर सकें हैं, उसी तेज़ी से अपनी विदेशनीति से विश्वसनीयता भी खोई है.

सवाल
यह नहीं कि हमने क्या खोया क्या पाया है! सवाल यह है कि जो पाया है क्या वह इस देश की जनता के अनुरूप है? हमने संवेधानिक व्यवस्था को बनाया है तो संसद की गरिमा को नष्ट भी किया है. हमने अपना कानून बनाया है पर वह किसी भी स्तिथि में अंग्रेजों के तानाशाही रवैये से कम प्रतीत नहीं होता है. क्या लाभ है इस प्रकार की व्यवस्था बनाकर जो अपने देश के नागरिकों को भी लाभान्वित न कर सके?

आज
हम स्वतंत्रा दिवस की उत्सव मना रहे हैं पर क्या वास्तव में हम प्रसन्न हैं? वर्तमान परिद्रश्य हमें प्रसन्न भी तो नहीं होने देता है। अतीत की यात्रा न कर हम वर्तमान के ऊपर द्रष्टि केंद्रित करें तो पायेंगे कि संसद पर हमला, देश के प्रमुख स्थलों पर ताज़ा बम धमाके, राजनीति का गिरता स्तर बताता है कि हम कहाँ तक पहुंचें हैं. कितना कहें हर शब्द में चीख है, हर आँख में आंसू है, हर आदमी परेशान है, हर पल भय से ग्रसित है, तब क्या वाकई स्वतंत्रा का आयोजन मनाने की स्वतन्त्रता हमें होनी चैये? क्या वाकई स्वतन्त्रता का पर्व हमें प्रसन्नता देता है? ये महज़ सवाल नहीं हमारी अंतरात्मा की आवाज़ हैं. इसे सुनना होगा और समझना होगा कि वर्तमान परिद्रश्य हमसे चाह क्या रहा है? जब इस बात को हम समझ जायेंगे तब सार्थक होगा हमारा स्वतंत्रता-पर्व मानना. जय हिंद.

लेखक का ब्लॉग: http://kumarendra.blogspot.com

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