मंगलवार, 23 सितंबर 2008

बुत आंसू बहा रहा था

('सखी एस.' समय के मर्म को अच्छी तरह से समझती हैउनका अंदाज़ शायरी का हैऔर उर्दू में लिखना उनका शौक हैसखी हिन्दी में भी कवितायें लिखती हैसामयिक सन्दर्भों पर उनकी अच्छी पकड़ भी हैएक बुत आंसू बहा रहा था शिल्प बुत के माध्यम से वक्त की ज़मीनी हकीकत को भी बयां करता हैसखी का लेखन अभी वर्चुअल है वे नेट पर खूब लिखती हैंये कविता खास तौर पर उल्टा तीर पत्रिका के लिए उन्होंने हाल में लिखी है )


आज मैं एक चौराहे से जा रहा था
मैंने देखा एक 'बुत' आंसू बहा रहा था
मैंने पूछा क्या बात है भाई
क्या तुम्हें किसी ने चोट है पहुंचाई
वह दुखी स्वर में बोला-
क्या बताऊँ भाई
हमने अपनी जान व्यर्थ में गंवाई
हमने सोचा देश आजाद होगा
हमारा अपना राज होगा
पर आज इंसानों ने
हमारा सपना तोड़ दिया
मक्कारी कर उसने
सच्चाई का साथ छोड़ दिया
हमने जिस देश की खातिर
अपनी जान गंवाई
आजकल इंसानों ने उसी की
इज्जत है दाव पर लगाई

हमने सोचा देश आजाद होगा
तो आजाद हमारे बहिन-भाई होंगे
न पता था हमें कि
आजाद दंगाई होंगे
हर तरफ़ धोखा और मक्कारी का आलम होगा
हर तरफ़ लाशें और लाशों पे मातम होगा
हमने तो कुछ ख़्वाबों को
इन आंखों में संजोया था
कुछ अपनी उम्मीदों को
इक मला में पिरोया था
आज इस मला को सब इंसानों ने तोड़ दिया
चोट क्या पहुंचाएंगे अब
जब धड ही मेरा तोड़ दिया

सब शहीदों को चोट पहुंचा रहे हैं दंगाई
और नेताओं की वो लूट रहे हैं वाही-वाही
आज सिर्फ़ मैं ही नहीं
हजारों बुत खड़े रो रहे हैं
अपने पत्थर शरीर को भी
व्यर्थ ही ढो रहे हैं
प्रस्तुति: सखी

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