सोमवार, 22 सितंबर 2008

फिल्मों के कथा सम्राट प्रेमचंद


महत्वपूर्ण साहित्यिक कृतियों पर फिल्में बनाना पहले भी जोखिमपूर्ण मना जाता था और आज भी फिल्मकार इस क्षेत्र में हाथ आजमाने में संकोच करते हैं, लेकिन समर्पित और प्रयोगधर्मी फिल्मकार किसी भी तरह की चुनौती को स्वीकार करने में पीछे नहीं रहते. चर्चित साहित्यिक चर्चित साहित्यिक कृतियों पर बनी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर कितनी सफल रहीं, यह एक अलग मुद्दा है, लेकिन आज भी उन फिल्मों का महत्त्व कम नहीं हुआ है. खासकर कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यासों पर बनी फिल्में आज भी चर्चित और महत्वपूर्ण बनी हुई हैं. मुंशी प्रेमचंद ने ख़ुद तो फिल्मी दुनिया में मुंशीगिरी में हाथ आजमाया, लेकिन वे जल्दी ही इससे अलग हो गये, किंतु उनकी कहानियों और उपन्यासों पर बनी फिल्मों ने उन्हें फिल्मों का भी सम्राट बना दिया. इधर प्रख्यात फिल्मकार श्री गुलज़ार ने प्रेमचंद को लेकर दूरदर्शन पर अनेक महत्वपूर्ण प्रयोग किए हैं और योजनायें भी हैं।


साहित्यिक रचनाओं पर आधारित फिल्मों के संगीत पर, यदि सरसर तौर पर भी नज़र डाली जाए तो भी यह स्वीकार करना होगा कि कृतियों के परिवेश का ध्यान रखते हुए भी कथ्य और आर्थ्व्यन्क्जक्ता के अनुसार कम तथा समय के साथ-साथ फ़िल्म संगीत की बदलती प्रवृत्तियों और शैलियों के अनुक्रम में अधिक ही इस संगीत की प्रस्तुती और विशेषताएँ परिवर्तनशील रही हैं।


उदाहरण के तौर पर प्रेमचंद की रचनायों पर आधारित फिल्मों की बात की जाए, तो पांचवे दशक में उनकी रचना पर आधारित 'मजदूर' का संगीत फ़िल्म के परिवेश को उतना नहीं उभारता जितना दशक के संगीत की आम परिपाटी को ही उभारता है. हरिप्रसन्नदास के संगीत से सजी इस फ़िल्म के 'ये रंग बिरंगी डोर है' (मन्नाडे, अमीर बाई), हुई दिल की दुनिया झिलमिल' (बीनापाणी मुखर्जी) जैसे गीत बिल्कुल स्टीरियोटाइप्ड लगते हैं और कहीं से भी मजदूर की जिंदगी की विषमताओं, कठिनाइयों और संघर्षों को उभारने में असफल रहते हैं. पाँचवे दशक से लोक संगीत का बढ़ता इस्तेमाल तो सामने आया लेकिन यह लोक संगीत ग्राम्य जीवन में व्याप्त शोषण और आकुलता को कम प्रतिपादित करता था तथा लोकसंगीत के उल्लासपूर्ण त्योहारी तथा रूमानी रंग को ज्यादा. यही कारण है कि प्रेमचंद के उपन्यास बनी 'गोदान' में भी तिलक कामोद के सुर लगाकर सृजित चैती 'जिया जरत रहत दिन रैन हो रामा' के बांसुरी और सितार के कोमल आरम्भ के बाद मुकेश के स्वर से अभीभूत करते विषाद को छोड़ दिया जाए तो शेष सभी गीत ग्रामीण परिवेश के अन्दर आह्लाद और रंजकता को ही उभारते थे, भले ही 'गोदान' के कथ्य और प्रतीक ग्राम्य जीवन की वेदना से उभारें हों।


वैसे यह भी निर्विवाद कि 'गोदान' का आर्केस्त्रेशन तो अद्भुत ही था. हर इंतर्ल्यूद ही अलग-अलग वाद्य संयोजन की नवीनता को लेकर आया. उनकी कहानी पर आधारित 'हीरा मोटी' में पुनः ग्रामीण लोक रंग का श्रन्ग्रारिक रूप इस बार रौशन के संगीत में अल्हैया बिलावल के सुरों के साथ 'ओ बेदर्दी आ मिल जल्दी' (लता), 'कौन रंग मूंग्वा कौन रंग मोतिया' (सुमन, सुधा मल्होत्रा) और दो तीन सितार की सांगत के अनुरूप प्रयोग के साथ 'इक दिन ये आंसू' (लता) जैसे गीतों से प्रकट हुआ.

वैसे परिवेश और कत्ति दोनों के हिसाब से अत्यन्त प्रभावशाली संगीत 'शतरंज के खिलाड़ी' पर बनी फ़िल्म में मिलता है, जहाँ लखनऊ की संस्कृति के उपयुक्त खमाज में ठुमरी "कान्हा मैं तोसे हारी' (बिरजू महाराज), राग देस आधारित 'हिंडोला भूले श्याम' (समूह गीत), पुनः खमाज में ही ठुमरी 'छवि दिखला जा' मिश्र खमाज आधारित दादरा 'बजाये बाँसुरिया श्याम जमुना किनारे' (रेवा मुहुरी), यदि एक ओर विलास और श्रृंगार की दुनिया बनाते थे तो दूसरी ओर इस दुनिया के टूटने की पीडा परदे पर वाजिद अली शाह के मुंह से पीलू का आधार लेकर 'तड़प तड़प सगरी रैन गुजरी' जैसी ठुमरी द्वारा मंत्रमुग्ध करते हुए प्रकट होती थी।


  • प्रेमचंद की कुछ फिल्में

'मजदूर' (१९४५)

नितिन बोस, नासिर खान, इंदुमती.

'हीरा-मोती' (१९५९)

कृष्ण चोपडा, बलराज साहनी, निरुपारय

'सौतेला भाई' (१९६९)

महेश कौल, गुरुदत्त

'गोदान' (१९६२)

त्रिलोक जेटली, राजकुमार, कामिनी कौशल

'गबन' (१९६६)

कृष्ण चोपडा, ऋषीकेश मुखर्जी, सुनील दत्त, साधना

'शतरंज के खिलाड़ी' (१९७७)

सत्यजीत राय, संजीव कुमार, साईड जाफरी

'संच को आंच नहीं' (१९७९)

सत्येन बोस, अरुण गोविल, मधु कपूर

'सदगति' (१९८१)

सत्यजीत राय, स्मिता पाटिल, ओमपुरी


(फिल्मोत्सव स्मारिका में प्रकाशित श्री पंकज राग के महत्वपूर्ण आलेख का संपादित अंश- जोकि शब्दशिल्पियों की आसपास पत्रिका में छपा, द्वारा यहाँ प्रस्तुत)


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