सोमवार, 22 सितंबर 2008

भेड़िये (कहानी :भुवनेश्वर )

कथा सागर

(भुवनेश्वर (प्रसाद) एक मेधावी रचनाकार थे, जिन्होंने अपने संक्षिप्त जीवनकाल में लीक से हटकर साहित्य-सृजन किया. हिन्दी एकांकी के जनक माने जानेवाले भुवनेश्वर ने कहानी, कविता तथा समीक्षाएं भी लिखीं. अपने जीवनकाल में मिथक का दर्जा हासिल करने वाले भुवनेश्वर का जन्म १९१० में उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में हुआ था तथा उनकी मृत्यु संभवतः १९५५ में एक लावारिस की तरह हुई. उनका जीवन अर्थाभावों में बीता. उनके पिता शाहजहांपुर के प्रतिष्ठित वकील थे. अपने प्रतिभाशाली बेटे को वे किसी उच्च शासकीय सेवा में भेजना चाहते थे मगर भुवनेश्वर ने हिन्दी में सर्जनात्मक लेखन करने के लिए अभावों की जीवन जीना स्वीकार किया. उनका अंगरेजी साहित्य का ज्ञान बहुत विस्तृत था. उनके जीवन का अधिकाँश समय प्रयाग तथा लखनऊ में बीता. उन्होंने मुंशी प्रेमचंद की कुछ कहानियों का अंगरेजी में भी अनुवाद किया था.भुवनेश्वर का पहला एकांकी संग्रह "कारवां" था. उनके नाटक "ऊसर तथा 'तांबे के कीडे' अत्यन्त प्रसिद्ध हैं. प्रस्तुत है भुवनेश्वर की कहानी भेड़िये)

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भेड़िये क्या हैं", खारू बंजारे ने कहा, "मैं अकेला पनेठी से एक भेड़िया मार सकता हूँ." मैंने उसका विश्वाश कर लिया. खारू किसी चीज़ से नहीं डर सकता हालांकि सत्तर के आस-पास होने और एक उम्र की गरीबी की सबब से वह बुझा-बुझा सा दीख पड़ता था तब भी उसकी एसी बातों का उसके कहने के साथ ही यकीन करना पड़ता था. उसका असली नाम शायद इफ्तखार या एसा ही कुछ था पर उसका लघुकरण 'खारू' बिल्कुल चस्पा होता था. उसके चारों ओर येसी ही दुरूह और दुभेद्ध कठिनता थी. उसकी आँखें ठंडी और जमी हुई थीं और घनी सफ़ेद मूंछों के नीची उसका मुंह इतना ही अमानुषीय और निर्दय था जितना एक चूहेदान।


जीवन से वह निपटारा कर चुका था, मौत उसे नहीं चाहती थी पर तब भी वह उसके मुंह पर थूककर जीवित था. तुम्हारी भली या बुरी राय की परवाह किए बिना भी वह कभी झुंट नहीं बोलता था और अपने निर्दय कटु सत्य से मानो यह दिखला देता था कि सत्य भी कितना ऊसर और भयानक हो सकता है. खारू ने मुझसे यह कहानी कही थी. उसका वह ठोस तरीका और गहरी बेसरोकारी, जिससे उसने यह कहानी कही, मैं शब्दों में नहीं लिख सकता पर तब भी मैं यह कहानी सच मानता हूँ-इसका एक-एक लफ्ज़.


"मैं किसी चीज से नहीं डरता, हाँ सिवा भेड़िये के मैं किसी चीज से नहीं डरता." खारू ने कहा, "एक भेड़िया नहीं, दो-चार नहीं. भेदियों का झुंड दो सौ-तीन-सौ, जो जादे की रातों में निकलते हैं और सारी दुनिया की चीजें जिसकी भूंख नहीं बुझा सकतीं, उन शैतानों की फौज का कोई भी मुकाबला नहीं कर सकता. लोग कहते हैं, अकेला भेदिया कायर होता है. यह झूंट है. भेदिया कायर नहीं होता, अकेला भी वह सिर्फ़ चौकन्ना होता है. तुम कहते हो लोमडी चालाक होती है तो तुम भेड़ियों को जानते ही नहीं. तुमने कभी भेदिये को शिकार करते देखा है किसी का बारहसिंगे का? वह शेर की तरह नाटक नहीं करता, भालू की तरह शेखी नहीं दीखता. एक मर्तबा सिर्फ़ एक मर्तबा-गेंद-सा कूदकर उसकी जांघ में गहरा ज़ख्म कर देता है-बस, फ़िर पीछे बहुत पीछे रहकर टपकते हुए खून की लकीर पर चलकर वहाँ पहुँच जता है जहाँ वह बारहसिंगा कमजोर होकर गिर पड़ता है और उचककर एक क्षण में अपने से तिगुने जानवर का पेट चाक कर देता है और वहीं चिपक जाता है. भेड़िया बला का चालाक और बहादुर जानवर है. वह थकना तो जानता ही नहीं. अच्छे पछैंयां बैल हमारे बंजारी गुड्डों को घोडों से तेज़ ले जाते हैं और जब उन्हें भेड़ियों की बू आती है तो भागते नहीं, उड़ते हैं लेकिन भेड़िये से तेज़ कोई चार पैर का जानवर नहीं दौड़ सकता.


"सुनो मैं ग्वालियर के राज़ से आईने में आ रहा था. अजीब सर्दी थी और भेड़िये गोलों में निकल पढ़े थे. हमारा गड्डा काफी भरा था.मैं, मेरा बाप, गिरस्ती और तीन नातानियाँ पन्द्रह-पन्द्र, सोलह साल की. हम लोग उन्हें पछाह लिए जा रहे थे."


"किसलिए?" मैंने पूछा.


"तुम्हारा क्या ख़याल है, मुजरा कराने? अरे बेचने के लिए. और वह किस मसरफ की हैं? ग्वालियर की नातानियाँ छोटी-छोटी गडबडी होती हैं और पंजाब में खूब बिक जाती हैं. यह लडकियां होती तो बड़ी चोखी हैं पर भरी भी खूब होती हैं. हमारे पास एक तेज़ बंजारी गड्डा था और तीन घोडों से तेज़ भागने वाले बैल."


हम लोग तड़के ही चल दिए थे, दिन-ही-दिन में हम आगे जाने वाले साथियों से मिल जाना चाहते थे. वैसे डर के लिए हमारे पास दो कमान और एक टोपीदार बन्दूक थी. बैल हौसले से भाग रहे थे और हम लोग दस मील निकल आए थे कि बड़े मियाँ ने कहा, "खारे भेड़िये हैं?"


मैंने तेज़ी से कहा, "क्या कहा? भेड़िये हैं? होते तो बैल चौंकते?"


बूड़े ने सर हिलाकर कहा, "नहीं, भेड़िये ज़रूर हैं. खैर वह हमसे दस मील पीछे हैं और हमारे बैल थक चुके हैं लेकिन हमें पचास मील और जाना है: बूढे ने कहा, " और मैं इन भेड़ियों को जानता हूँ परसाल इन्होंने कुछ कैदियों को खा लिया था और बेडियों और सिपाहियों की बंदूकों के सिवा कुछ न बचा. बन्दूक भर लो. " मैंने कमानों को तान के देखो, बन्दूक तोडी, सब ठीक था.


"बारूद की नै पोंगली भी निकाल के देख ले, "मेरे बाप ने कहा.


"बारूद की पोंगली, "मैंने कहा, मेरे पास तो पुराणी ही वाली है.


तब बूढे ने मुझे गालियाँ देनी शुरू कीं, "तू यह, तू वह है."


मैंने पूरा गड्डा उलट डाला पर नई पोंगली कहीं नहीं थी.


मेरे बाप ने भी सब टटोला, "तू झूठ बोलता है, तू भेड़िये की औलाद है, मैंने तुझसे नई पोंगली दी थी." पर वह बारूद यहाँ कहीं नहीं थी. मेरे बाप ने मेरी पीठ पर कुहनी मारते हुए कहा, "शहर पहुंचकर मैं तेरी खाल उधेड़ दूँगा, शहर पहुंचकर...और." इसी वक्त अचानक बैल एकदम रूककर पूँछ हिलाकर जोर से भागे. मैंने सूना मीलों दूर एक आवाज आ रही थी, बहुत धीमी खंडहरों इमं आंधी गुजरने से आती है-हवा आ आ आ आ आ.


"हवा"-मैंने सहम के कहा, "भेड़िये!" मेरे बाप ने नफरत से कहा और बैलों को एक साथ किया. पर उन्हें मार की जरूरत नहीं थी. उन्हें भेड़ियों की बू आ रही थी और वे जी तोड़कर भाग रहे थे. दूर मैं एक छोटे से काले धब्बे को हरकत करते देख रहा था.उस सैकड़ों मील के चपटे रेगिस्तानी बंजर में तुम मीलों की चीज देख सकते हो और दूर उस काले धब्बे को बादल की तरह आते मैं देख रहा था. बूढे ने कहा, "जैसे ही वह नजदीक आ जाए, मारो, एक भी तीर बेकार खोया तो मैं कलेजा निकाल लूँगा.: और तब उन तीनों लड़कियों ने एक दूसरे से चिपटकर टिसुए (आंसू) बहाना शुरू कर दिया. "चुप रहो"- मैंने कहा, "तुमने आवाज निकाली और मैंने तुम्हें नीची ढकेला." भेड़िये बढ़ते हुए चलते आते थे, हम लोग भरी पथरीली धरती पर उड़ रहे थे पर भेड़िये! बूढे ने लगामें छोड़ दीं और बन्दूक संभलकर बैठा. मैंने कमान संभली-मैं अंधेरे में उड़ती हुई मुर्गाबियों का शिकार कर सकता था और मेरा बाप-वह जो जिस चीज पर निशाना ताकता था अल्लाह उसे भूल जता था. कोई चार सौ गज पर मेरे बाप ने आगे वाले भेड़िये को गिरा दिया. धान्य! उसने नातों की तरफ़ एक कलाबाजी खाई और फ़िर दूसरी बिल्कुल नातों की तरह. बैल पागल होकर भाग रहे थे, हवा में उनके मुंह का फेन उड़कर हमारे मुंहों पर मह की तरह गिरता था और वे रंभा रहे थे-जैसे बंजारिनें ब्यानेवाली भेंसों की नकलें करती हैं पर भेड़िये नजदीक ही आते जा रहे थे. गिरे हुए भेदियों को वे बिना रुके खा लेते थे, वे उनके ऊपर तैर जाते थे. मेरे बाप ने मेरे कंधे पर बन्दूक की नाली रख ली थी. धान्य! धान्य! (मेरी गर्दन पर अब तक जले का दाग है) मैंने भी सोलह तीरों से सोलह ही भेड़िये गिराए, बूढे ने दस मारे थे पर तब भी वह गोल बढ़ता ही आता था.


"ले बन्दूक"-उसने कहा, "मैं बैलों को देखूँगा.:


उसका ख्याल था कि बैल उससे भी तेज़ भाग सकते थे पर यह ख्याल ग़लत था.

दुनिया के कोई बैल उससे तेज़ नहीं भाग सकते थे.


मैं बन्दूक का भी निशाना खूब लगाता था पर वह देसी जंग लगी बन्दूक, खैर, वह लडकी उसे पाँच मिनट में भर देती थी.बाडी अच्छी लडकी थी, वह बन्दूक भारती थी, मैं निशाना मारता था-अचूक, मैंने दस और गिराए, धान्य-धान्य-धान्य! जब सब बारूद ख़त्म हो गया वो भेड़िये भी कुछ हारे-से मालूम होते थे.

मैंने कहा, "अब वे पिछड़ गए."


बूढा हंसा, " वह इतनी-सी बात से नहीं पिछड़ सकते. पर मैं मारते-मारते कह चलूँगा कि सात मुल्क के बंजारों में खारे-सा खरा निशानेबाज नहीं है."

मेरा बाप बुढापे में बड़ा हंसोड़ हो गया था.


हाँ, तो भेड़िये कुछ पीछे रह गए थे, उन्हें कुछ खाने को मिल गया था, सप-सप-चाट बैलों पर कोडा बोल रहा था कि पाँच मिनट बाद ही उन्होंने फ़िर हमारा पीछा शुरू किया. वे हमसे दो सौ गर पर रह गए होंगे और बड़ते ही आते थे. मेरे बाप ने कहा, "सामान निकालकर फेंको, गड्डा हल्का करो."


एक बारगी ठोकर खाकर गड्डा चक्राकार चला. पूरे बंजारों मिएँ यह गड्डा अफसर था और सब सामान फेंककर हमने उसे फूल-सा हल्का कर दिया था और कुछ देर तो हम भेड़ियों से दूर निकलते मालूम हुए पर तुंरत ही वे फ़िर वापस आ गए.


बढे मियाँ ने कहा, "अब तो, एक बैल खोल दो."


"क्या?" मैंने कहा, "दो बैल गड्डा खींच ले जायेंगे?"


उसने कहा, "अच्छा तब तक नटनियां फेंक दो", मैंने उन तीन मिएँ से मोटी को ही उठाया और गड्डे के बाहर झुलाकर फेंक दिया. हाँ! ग्वालियर की नटनियां, उसके दांत लगा दो तो वह भी भेड़ियों का मुकाबला कर लें. पहले तो वह भागी पर यह जानकर कि भागना बेकार है, घूमकर खादी हो गई और साम्न्वाले भेड़िये की टांगें पकड़ लीं पर इससे भी क्या फायदा था एकदम वह नज़र से ओझल हो गई-जैसे किसी कुएं में गिर पडी हो. गड्डा हल्का होकर और आगे बढ़ा पर भेड़िये फ़िर लौट आए.

"दूसरी फेंकों," बड़े मियाँ ने कहा, पर अब की मैंने कहा, "आख़िर क्या हम लोग सैर करने एक लिए मारे-मारे फिरते हैं, एक बैल न खोल दो."


मैंने एक बैल खोल दिया. वह पीठ पर पूँछ रखकर चिंघाड़ता हुआ भागा और गोल उसके पीछे मुड़ गया.

मेरे बाप की आंखों में आंसू भर आए. "बड़ा असील बैल था, बड़ा असील बैल था..." वह बुदबुदा रहा था.

"हम बच तो गए", मैंने कहा. पर तभी हवा आ आ आ आ आ . गोल वापस आ गया था. "आज क़यामत का दिन है", मैंने कहा और बैलों को इतना भगाया कि मेरी हथेली में खून छल छला आया. भेड़िये पानी की तरह बढ़ते चले आ रहे थे हमारे बैल मर के गिरना ही चाहते थे. "दूसरी लडकी भी फेंको!" मेरे बाप ने चीखकर कहा.


इन दोनों में बादी भरी थी और कुछ सोचकर कांपते हाथों से वह अपनी चांदी की नथनी उतारने लगी थी और मैंने शायद बताया नहीं, मुझे वह कुछ अच्छी भी लगती थी.


इसलिए मैंने दूसरी से कहा, "तू निकल!" पर उसको तो जैसे फाजिल मार गया था. मैंने उसे गिरा दिया और वह जैसे गिरी थी, वाहे ही पडी रही. गड्डा और हल्का हो गया और तेज दौड़ने लगा. पर पाँच मिनट में भेड़िये फ़िर वापस आगये. बड़े मियाँ ने गहरी साँस ली, माथा पीट लिया, "हम क्या करें, भीख माग के खाना बंजारों का दीं है, हम रईस बनने चले थे..."


मैंने बादी की तरफ़ देखा, उसने मेरी तरफ़. मैंने कहा, "तुम ख़ुद कूद पडोगी कि मैं तुम्हें ढकेल दूँ.." उसने चांदी की नाथ उतारकर मुझे दे दी और बाहों से आँखें बंद किए कूद पडी. गड्डा बिल्कुल हवा से उड़ने लगा, वह पूरे बंजारों में गद्दों का अफसर था.


पर हमारे बैल बेहद थक गए और बस्ती तक पहुँचने के लिए अब भी तीस मील बाकी थे, मैं बन्दूक के कुंदे से उन्हें मार रहा था पर भेड़िये फ़िर लौट आए थे.

मेरे बाप के मुंह से पसीना टपकने लगा, "लाओ दूसरा भी बैल खोल दें".


मैंने कहा, "यह मौत के मुंह में जाना है. हम लोग दोनों मारे जायेंगे, हमें या तुम्हें किसी को तो बचना चाहिए."


"तुम ठीक कहते हो", उसने कहा, "मैं बूढा आदमी हूँ. मेरी जिंदगी ख़त्म हो गई. मैं कूद पडूंगा."

मैंने कहा, "निराश मत होना, मैं जिन्दा रहा तो एक-एक भेड़िये को काट डालूँगा."


"तू मेरा असली बेटा है!" मेरे बाप ने कहा और मेरे दोनों गाल चूम लिए. उसने अपने दोनों हाथों में बड़ी-बड़ी छुरियाँ ले लीं और गले में मजबूती से कपडा लपते लिया.


"रुको, "उसने कहा, "मैं नए जूते पहने हूँ, मैं इन्हें दस साल पहनता पर देखो, तुम इन्हें मत पहनना, मरे

हुए आदमियों के जूते नहीं पहने जाते, तुम इन्हें बेच देना."


उसने जूते खींचकर गड्डे पर फेंक दिए और भेड़ियों के बीचों-बीच कूद पड़ा. मैंने पीछे घूमकर नहीं देखा लेकिन थोड़ी देर में उसे चिल्लाते सुन रहा, यह ले! यह ले! भेड़िये की औलाद! चट!-चट! चट-चट! मैं ही किसी तरह भेड़ियों से बच गया.


खारू ने मेरे डरे हुए चहरे की तरफ़ देखा जोर से हंसा और खखारकर बहुत-सा जमीन पर थूक दिया.

"मैंने दूसरे ही साल उसमें से साथ भेड़िये और मारे! खारू ने फ़िर हंसकर कहा पर उसके साथ ही उसकी आंखों में एक अनहोनी कठोरता आ गई और वह भूखा, नंगा उठकर सीधा खडा हो गया.


2 टिप्पणियाँ:

ZEAL 8 अप्रैल 2011 को 11:56 pm बजे  

Nice story !

Adinath's Blog 21 जून 2016 को 2:51 am बजे  

Amit,
Thank you for posting this story. I read this long time back in Kadambini magazine. After that I was looking for this like anything. Good Job !! Needless to say, but this is great story. Thanks,
Adinath Kamode
Pune - adinath.kamode@gmail.com

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