शनिवार, 2 अगस्त 2008

प्रेरक कथा


विश्वासघात

कश्मीर का रजा ललितादित्य बड़ा उदात्त शासक था, लेकिन अन्य राजा के भी नए राज्यों पर विजय प्राप्त करने की अभिलाषा रखता था.उसे जानकारी मिली कि गोबी मरुभूमि के उस पर इक छोटे राज्य का शासक बहुत कमजोर है। उसे जीतकर अपने राज्य के इक उपनिवेश के समान उस पर शासन करना कठिन नहीं होगा. उन्होंने एसा विचार कर इक मजबूत सेना का संगठन किया और उसके नेतृत्व का भार ख़ुद लेकर सेना को उस राज्य की दिशा में कूच करने का आदेश दे दिया. वह अपने राज्य की सीमा को पार करने ही वाला था कि इक व्यक्ति, जो देखने में प्रतिष्ठित लग रहा था पर उसके वस्त्र फटे-पुराने थे और उसकी आंखों में आंसूं थे, राजा के घोडे के सामने घुटनों के बल बैठकर सलाम करता हुआ बोला, "महाराज, मैं आप से मिलकर यह कहने के लिए आपके दरबार में आ रहा था कि आप हमारे छोटे से टापू पर हमला न करें. लेकिन आप तो पहले ही अभियान पर निकल चुके हैं."

उसने अपने आप को उस राज्य का प्रधानमन्त्री बताया जिस पर आक्रमण करने के लिए रजा चल पड़ा था. उसने कहा कि उसने अपने राजा को सलाह दी थी कि वह वीर ललितादित्य की विशाल सेना के साथ टक्कर नहीं ले पायेगा, इसलिए उसे आत्म समर्पण कर देना चाहिए. किंतु उसकी सलाह पर विचार विमर्श करने की बजाय राजा ने उसे अपमानित किया और मारा-पीटा. इतना होते हुए भी, उस व्यक्ति ने राजा ललितादीय से प्रार्थना की कि वे उसके राज्य पर प्रजा के हित में आक्रमण न करें, क्योंकि युद्ध का अर्थ है, उनका विद्ध्वंस उनकी पीड़ा.

"प्यारे दोस्त, अपनी प्रजा के लिए तुम्हारी चिंता की मैं प्रशंसा करता हूँ. लेकिन मेरे, अभिमान से पीछे मुड़ने का प्रश्न नहीं उठता. लेकिन, इतना वादा कर सकता हूँ कि तुम्हारी प्रजा से को मैं परेशान नहीं करूंगा और विजय पर्यंत तुम्हारे राजा की सेना से ही युद्ध करूँगा. तुम्हारी राजा के प्रति इस दया के लिए क्या तुम मेरे शिविर में सम्मिलित हो जाओगे, क्योंकि तुम्हारा राजा तुम्हारे प्रति निष्ठुर हो चुका है?" राजा ललितादित्य ने पूछा.

कुछ गहरे चिंतन के बाद मंत्री सहमत हो गया.

"महाराज, यदि आप मरुभूमि के किनारे वाले सामान्य मार्ग से जायेंगे तो हमारी राजधानी पहुँचने में बहुत लंबा समय लगेगा. लेकिन मैं मरुभूमि के बीह से जाने वाले छोटे मार्ग से परिचित हूँ. हम लोग उस मार्ग से पन्द्रह दिनों में गंतव्य तक पहुँच जायेंगे. हाँ, निस्संदेह पीने के लिए पानी की काफी मातृ साथ ले चलना होगा". जब राजा ने उससे मित्रवत व्यवहार किया तब मंत्री ने यों सलाह दी.

राजा को यह सलाह समुचित लगी. मंत्री ने रेगिस्तान में सेना को मार्ग दिखाया. आरम्भ में सबके हौसले बुलंद थे. लेकिन रेगिस्तान की भयानक गरमी ने शीघ्र ही सबकी हिम्मत तोड़ दी. पानी का भण्डार खाली होने लगा. तब तक तीन हफ्ते बीत गए.

"अब लक्ष्य कितना दूर और है?" राजा ललितादिया ने मंत्री से पूछा.

एक मुर्दनी हंसी के साथ रुक-रुक कर मंत्री बोला, "महाराज, बस कुछ ही दिनों के बाद हम सब अन्तिम गंतव्य पर पहुँच जायेंगे, यानी जीवन के उस पार के लोक में, जहाँ पीने के लिए पानी नहीं मिलेगा. निस्संदेह मैं वहाँ पहले जाउँगा, क्योंकि जब आप सत्य जान जायेंगे तब आप मुझे मार देंगे, और क्रूर सत्य यह है कि मैंने अपने राजा और प्रजा के लिए जान बुझकर आप को ग़लत मार्ग बताया."

ललितादित्य भौचक रह गया. लेकिन उसने सबसे पहला काम मंत्री को न मर कर अपनी पार्टी में जल सगुनिया को बुलाकर मरुभूमि में जमीन के अन्दर पानी का पता लगाने के लिए कहा. भाग्य से वह स्थान जल्दी ही मिल गया जहाँ खुदाई करने पर काफी पानी मिला. रजा ललितादित्य ने मंत्री से कहा, "तुमने हमारे प्रति विश्वास घाट किया किंतु अपने राजा और प्रजा के प्रति विश्वास पात्र बने रहे. मैं तुम्हें जीवन दान देता हूँ. जो भी हो, मैंने अपनी यौजना त्याग दी है और मैं स्वदेश लौट जाना चाहता हूँ. तुम हमारे साथ तब तक रह का भोजन-पानी ले सकते हो जब तक तुम्हारी अपने राज्य में लौट जाने की व्यवस्था न हो जाए."इस प्रसंग की चर्चा महत्वपूर्ण 'राज्तारंगिनी' में मिलाती है जिसकी रचना १२ वीं शताब्दी में कल्हण द्वारा की गयी थी. कश्मीर के राजाओं का यह इतिवृत सामान्य रूप से भारत में प्रथम लिखित इतिहास के करती मन जाता है.


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