सोमवार, 4 अगस्त 2008

बाबा आम्टे से पहली मुलाक़ात


बाबा आम्टे से पहली मुलाक़ात
(बाबा आम्टे की स्मृतियों से जुडा श्री विश्वनाथ सचदेव का एक आलेख )

बीस
साल तो हो गए होंगे उस बात को जब मैं बाबा आम्टे से पहली बार मिला था। दूरदर्शन के लिए इंटरव्यू करना था उनका। उस दिन वे दादर में अपने एक मित्र डॉक्टर के घर ठहरे हुए थे। दूरदर्शन के प्रोड्यूसर डॉ. गुंठे और कैमरामैन के साथ वहां पहुंचकर मैंने घंटी बजाई तो दरवाजा एक बूढे़ से व्यक्ति ने खोला था। घुटन्ना और बनियान पहने हुए वह व्यक्ति घर का कोई नौकर लग रहा था। इससे पहले कि मैं उस व्यक्ति से बाबा आम्टे के बारे में पूछता, मेरे पीछे खडे डॉ. गुंठे ने लपककर उनके पैर छू लिए। वे बाबा आम्टे से पहले मिल चुके थे। वे पैर छूकर गदगद थे और मैं हैरान। यह हैं बाबा आम्टे? बहुत नाम सुना था उनका। उनके काम के बारे में भी काफी कुछ जानता था। धनी परिवार में जन्मे उस फक्कड़ संत की समाज सेवा से बहुत प्रभावित था मैं। लेकिन उन्हें पहली बार देखना बहुत ज्यादा उत्साहवर्धक नहीं लगा।

पर यह 'पहली बार' वाली बात कुछ ही मिनट की थी। जल्दी ही बाबा बिस्तर पर लेट गए थे। तब मुझे पता चला था कि बरसों से बाबा बैठे नहीं हैं। वे या तो खड़े रह सकते थे या फिर लेट सकते थे- यह क्रम ताउम्र चला। लेटे ही लेटे वह इंटरव्यू हुआ था और उस एक घंटे बाद मुझे लगा दरवाजा खोलने वाला वह बूढ़ा कोई ऋषि था और मुझे यह भी लगा कि उनके बारे में ही मेरा सोच नहीं बदला कुछ और भी बदला है मेरे भीतर। यह सही है कि मैं आनंदवन कभी नहीं गया जहां बाबा आम्टे का आश्रम है। लेकिन कुष्ठ पीडि़तों की सेवा का उनका व्रत और उससे पहले सफाई कामगारों की यूनियन का नेतृत्व संभालने से पहले सिर पर मैला ढोने का अनुभव लेने की उनकी जिद मुझे हमेशा सृजनात्मक मानवता को परिभाषित करती लगी है।

उस इंटरव्यू में बाबा की आंखों की चमक ने तो मुझे बांधा ही था, समाज और राष्ट्र के प्रति व्यक्ति के कर्तव्यों की उनकी परिभाषा भी बहुत कुछ बोल रही थी। तब बाबा ने विवेकानंद की बात भी की थी और चवन्नी खोने वाली एक बात भी बताई थी। हुआ यह कि इंदिरा गांधी ने बाबा आम्टे से कहा था कि वे दिल्ली आकर कुछ काम करें तो वे उनकी काफी मदद कर सकेंगी। उत्तर में बाबा ने कहा था, 'मेरी चवन्नी तो जंगल में खोई है, उसे राजधानी में कहां खोजूंगा?'मैं इस बात को कभी भूल नहीं पाया। बाबा आम्टे उन विचारकों में से थे जो कर्म को चिंतन से अधिक अहम समझते थे- वे जानते थे कि चवन्नी वहीं मिल सकती है जहां उसे खोया है। इसलिए जब-जहां जरूरत पड़ी, बाबा वहां पहुंचे। सरदार सरोवर योजना के विस्थापितों के अधिकारों की रक्षा की लड़ाई लड़ने के लिए वे अपना आनंदवन आश्रम छोड़कर बरसों पीडि़तों के साथ झोपड़ी में रहे थे।

कुष्ठ रोगियों को जीवन का एक नया संदेश देने वाले इस संत ने आदिवासियों के जीवन के अंधरों को दूर करने का भी बीड़ा उठाया था। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि वे कितना कुछ कर पाए, महत्वपूर्ण यह है कि वे क्या किया जाना चाहिए का एक सार्थक संदेश देने में सफल हुए।

बापू ने 'भारत छोड़ो' का नारा देकर अंग्रेजों की दासता से मुक्त होने का एक रास्ता दिखाया था। बाबा ने देश को 'भारत जोड़ो' का नारा दिया। 1895 में जब देश अलगाववाद की मार से पीडि़त था बाबा आम्टे ने देश को जोड़ने का अभियान चलाया। उनके इस अभियान से देश भर से युवा और छात्र आकर जुड़े थे। यह सही है कि 'भारत जोड़ो' को 'भारत छोड़ो' जैसी सफलता नहीं मिली। आज भी देश भाषा, प्रांत, धर्म, जाति के आधार पर बंटा हुआ है। राजनेता जब चाहते हैं इनका नाम लेकर देश की जनता को भरमाने में सफल हो जाते हैं। लेकिन इससे बाबा के उस अभियान की महत्ता कम नहीं हो जाती, उलटे यह अहसास जागता है कि देश को जोड़ने का अभियान लगातार चलता रहना चाहिए। बाबा ने जब यह अभियान चलाया था तो पंजाब और असम अलगाववाद की आग में जल रहे थे आज लपटें भले ही न दिख रही हों, लेकिन भीतर ही भीतर आग सब तरफ सुलग रही है। हमारी राजनीति को जातीयता का घुन लग गया है और हमारा सोच तरह-तरह की संकीर्णताओं का बंदी बना हुआ है। कभी राजनीति के सौदागर हमें धर्म के नाम पर बहका देते हैं तो कभी भाषा का झंडा उठाकर भारतीय समाज को बांटने की साजिश की जाती है। यह क्या कम विडम्बना है कि अपने ही देश में कभी उत्तर प्रदेश वाला महाराष्ट्र में पराया हो जाता है और कभी दक्षिण वाला? कभी पंजाब में बिहार के मजदूरों के खिलाफ आवाज उठने लगती है और कभी तमिलनाडु का व्यक्ति कर्नाटक में स्वीकार्य नहीं होता। कभी हम हिंदू-मुसलमान के नाम पर झगड़ने लगते हैं और कभी भाषाएं पुल बनने के बजाय हमारे बीच की दीवार बन जाती हैं।

बाबा आम्टे ने इस अलगाववाद के खिलाफ अलख जगाया था। हर तरह के शोषण और अत्याचार के खिलाफ संघर्ष करने का नारा दिया था। उनकी शवयात्रा में उनके अनुयायी राम नाम सत्य है के बजाय 'भारत जोड़ो' का नारा लगा रहे थे, मारने और मांगने के बजाय हाथ को निर्माण में लगाने की बात कह रहे थे। उस शवयात्रा में हजारों युवा थे, जो मेघा पाटकर के साथ मिलकर गा रहे थे- 'इसलिए राह संघर्ष की हम चुनें / जिंदगी आंसुओं में नहाए नहीं/ शाम सहमी न हो, रात न हो डरी/ भोर की आंख फिर डबडबाए नहीं।' बाबा आम्टे ने भोर की आंखों में उम्मीदों के सपने तैरते देखना चाहा था। इसलिए वे संघर्ष की बात करते थे। वे बात ही नहीं करते थे, अपने कहे को करके भी दिखाते थे। उनका संघर्ष निर्माण के लिए था। वे इसी संघर्ष के लिए जिए और बार-बार जन्म लेना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने कहा, मेरे शव को जलाना मत। वे अनंत में खोना नहीं चाहते थे, इसलिए उन्होंने अपने शव को दफनाए जाने की बात की और उस जगह पौधा लगाने की बात की जहां उन्हें दफनाया जाए, ताकि 'मैं पेड़ बनकर पुनर्जन्म ले सकूं।' पर्यावरण के प्रति उस मसीहा की प्रतिबद्धता का इससे बड़ा और क्या उदाहरण हो सकता है। बरसों पहले उन्होंने गढ़चिरौली के जंगलों में लाखों पेड़ों को बचाने के लिए जो अभियान छेड़ा था, उसकी सार्थकता उन्होंने मर कर भी साबित की। मरने के बाद भी उनका संघर्ष जारी है। 'भारत रत्न' ऐसे ही संघर्षां से जनमते हैं, इन्हें किसी सरकार के सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं होती। दलितों-पीडि़तों के हित में संघर्ष की इस मशाल को जिंदा रखकर ही हम इस राष्ट्र संत को श्रद्धांजलि दे सकते हैं।
(आभार :श्री विश्वनाथ सचदेव )

1 टिप्पणियाँ:

karmowala 10 अगस्त 2008 को 3:04 am बजे  

aise ऐसे कर्मवीरों को देश सदा सदा याद रखता है अमित जी और उनके जैसे अन्य संतान के लिए उस परम पिता से वरदान चाहता है

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