सोमवार, 4 अगस्त 2008

राही को राह पे लाना है


आजादी मिल गई है लेकिन, मिट न सकी वो काली छाया
तन आजाद है, हो गया माना, मन आजाद तो हो नहीं पाया

अंग्रेजो के कोप से पीड़ित, जनता ने जब शोर मचाया
गली - गली में, घर - घर में, जब लोगों ने लहू तिलक लगाया

नर शव से जब जमी पट गयी, पर वलिदान न कम हो पाया
तब जाकर, भारत का गौरव, तिन रंग का धवज फहराया

सादियो से पिंजरे का बंदी, पंक्षी ने तब पर फैलाया
उड़ जाने की नील गगन में, सोचा, पर वो उड़ ना पाया

क्युकी वह था, भूख से पीड़ित, दलित, कहाँ वह जाता
किस - किस के आगे, वह अपनी, करुण कथा दुहराता

पेट की ज्वाला, कष्ट की राहें, देख के वह घबराया
मन का कादर, पिंजरे की, सुविधा को भूल न पाया

उसने सोचा, पिंजरे में था, मगर पास में रोटी थी
बंधकर रहना पड़ता था, पर कष्ट भी छोटी मोटी थी

एक मत्स्य हो दुषित अगर, तालाव दुषित हो जाता है
गलत सोच भी कभी - कभी, खासा महंगा पड़ जाता है

आज भी हम, उस गलत सोच को, दूर नहीं कर पाए है
हिले नहीं, है खड़े वही, पिंजरे की ताक लगाये है

हमें सोच के अन्धकार में, दीप ज्योति का लाना है
तन की मुक्ति की भाति ही, मन को भी मुक्त बनाना है

हमें मार्ग से भटक चुके, राही को राह पे लाना है
आजादी का अर्थ सही, क्या है, उनको बतलाना है


"संत शर्मा" कोलकाता स्थित एक निजी कंपनी में Accountant के तौर पर काम करते हैं आज़ादी कविता उनकी लेखनी से नही वरन दिल से निकली है

3 टिप्पणियाँ:

karmowala 9 अगस्त 2008 को 9:28 am बजे  

आजादी का अर्थ सही, क्या है, उनको बतलाना है भाई साब हमे भी बताना क्युकि हमने न तो गुलामी देखि और न उसके वीभ्त्श चेहरे के बारे मे किसी ने कुछ बताया आज तो हमरे देशभक्ति को अमरीका प्यारा हो गया है तभी हम देश भक्त है

बेनामी 14 अगस्त 2008 को 9:55 pm बजे  

कैसेए विडम्बना है कि कम आज़ादादि मिलने के इट्तने दिनों बाद भी वैसे के वैसे रहे जैसे पहले रहे होंगे।

Amit K Sagar 3 सितंबर 2008 को 6:06 am बजे  

"उल्टा तीर" पर आप सभी के अमूल्य विचारों से हमें और भी बल मिला. हम दिल से आभारी हैं. आशा है अपनी सहभागिता कायम रखेंगे...व् हमें और बेहतर करने के लिए अपने अमूल्य सुझाव, कमेंट्स लिखते रहेंगे.

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अमित के. सागर

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