शनिवार, 2 अगस्त 2008

प्रेरक प्रसंग


अमूल्य शिक्षा : अपना काम आप करो

उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में अनेक महान योगी, दार्शनिक, वैज्ञानिक, राजनीतिज्ञ , स्वाधीनता सेनानी तथा लेखक हो चुके हैं. उनमें एक महान समाज सुधारक थे पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर (१८२०-९१)

बंगाल (अविभाजित) के मेदिनीपुर जिला में एक गरीब ब्रह्मण परिवार में उनका जन हुआ. बहुत कष्ट और कठिनाइयों से गुज़रते हुए विद्याध्ययन कर वे सरकारी संस्कृत कोलेज के प्रोफेसर हो गए और बाद में वहाँ के प्राचार्य बन गए. वे बंग्ला गद्य में एक नयी प्रवृत्ति के जन्मदाता मने जाते थे. पर सबसे अधिक ध्यान देने योग्य बात यह है कि पाश्चात्य दर्शन और अंग्रेजी भाषा के अध्ययन की वकालत करने के बाबजूद उन्होंने पश्चिमी जीवन-शैली का अनुकरण कभी नहीं किया. उन दिनों पश्चिमी पोशाक धारण किए बिना कोई सरकारी समारोह में नहीं जा सकता था. ईश्वरचंद्र हमेशा धोती, शाल और चप्पल पह्नानते थे, इसलिए सरकारी समारोहों में जाने से इनकार कर देते थे.

वे संस्कृत और प्राचीन साहित्य के महान पंडित थे. इसीलिए यथा नाम तथा गुण के आधार पर वे विद्यासागर के रूप में प्रसिद्द हुए. ब्राहमण होने के नाते वे अनुष्ठानों का पालन करते थे, लेकिन पवित्र परम्पराओं के रूप में प्रचलित अंधविश्वासों के कट्टर विरुद्ध थे. उन दिनों बालविवाह का प्रचलन था. विवाह के पश्चात उनमें से कितनी ही कन्याएं पति से मिलाने के पहले ही विधवा हो गईं. एसी विधवाओं को दिन में इक बार खाकर, श्वेत साडी पहनकर, आभूषणों से वंचित, बाहर जाने से वंचित सामाजिक उत्सवों से अलग रह कर अनेक कष्ट झेलते ही तापसी व्यतीत करना पड़ता था.

विद्यासागर ने समाज के सामने द्रद्तापुर्वाक यह दावा किया कि हमारे शास्त्रों में इस प्रकार के रीति-रिवाज का कोई विधान नहीं है. समाज को कोई अधिकार नहीं है कि एसी निर्दोष लड़कियों को, जिनकी कोई गलती नहीं है, सज़ा दे. कट्टरपंथियों के हिंसापूर्ण विरोध के बाबजूद उन्होंने विधवा विवाह के विचार की आगवानी की. अंत में उन्हें इस आन्दोलन में सफलता मिली जब सरकार ने हिंदू विधवा विवाह पर क़ानून की मोहर लगा दी.

एक दिन पश्चिमी पोषक में एक युवक रेलवे स्टेशन पर उतरा. रेलवे स्टेशन विद्यासागर के घर के निकट था. युवक के पास केवल एक छोटा सा सूटकेस था. वह चिल्लाया, 'कुली, कुली!' लेकिन वहाँ कोई नहीं था. फ़िर भी ग्रामीण जैसा एक आदमी उनके पास आया और उसके सूटकेस को उठा लिया.

"क्या तुम पंडित विद्यासागर का घर जानते हो?"

युवक ने पूछा!

"जी हाँ, जानता हूँ, सर!"

"बहुत अच्छा! क्या तुम मेरा सामन वहाँ तक पहुंचा दोगे? कितना पैसा लोगे?" युवक ने साफ़-साफ़ पूछा और फ़िर कहा, " मैं वहाँ सिर्फ़ थोड़ी देर के लिए रुकूँगा! फ़िर स्टेशन वापस आकर दूसरी जगह के लिए ट्रेन पकडूँगा. यही तुम ठीक-ठीक पैसे बता दो तो वापस आते समय भी तुम्ही मेरा सामन लाना."

"ठीक है सर. बाद में देखा जायेगा. अभी कृपया मेरे साथ आइये." ग्रामीण जैसा व्यक्ति ने कहा.

दोनों कुछ ही मिनटों में विद्यासागर के घर पहुँच गए. आगंतुक को यह सम्जहने में देर नहीं लगे कि उसका सामन धोकर लाने वाला व्यक्ति और कोई नहीं बल्कि ख्यातिप्राप्त स्वंय विद्यासागर ही हैं. वह बहुत लज्जित हुआ. लेकिन विद्यासागर ने उसे प्यार से कहा, "शारीरिक काम करने से कतराना नहीं चाहिए और झुनती प्रतिष्ठा पर खड़ा नहीं होना चाहिए. अपमान की बात तो दूर, अपना सामन स्वंय धोना सम्मान की बात है. जयादा भरी हो तो और बात है. युवक को जिंदगी भर के लिए एक अमूल्य शिक्षा मिल गई.




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