रविवार, 3 अगस्त 2008

करनी होगी आज़ादी की फिर से और लड़ाई !



करनी होगी आज़ादी की फिर से और लड़ाई !
"महेंद्रभटनागर"


लज्जा ढकने को
मेरी खरगोश सरीखी भोली पत्नी के पास
नहीं हैं वस्त्र,
कि जिसका रोना सुनता हूँ सर्वत्र !
घर में, बाहर,
सोते-जगते
मेरी आँखों के आगे
फिर-फिर जाते हैं
वे दो गंगाजल जैसे निर्मल आँसू
जो उस दिन तुमने
मैले आँचल से पोंछ लिए थे !

मेरे दोनों छोटे
मूक खिलौनों-से दुर्बल बच्चे
जिनके तन पर गोश्त नहीं है,
जिनके मुख पर रक्त नहीं है,
अभी-अभी लड़कर सोये हैं,
रोटी के टुकड़े पर,
यदि विश्वास नहीं हो तो
अब भी
तुम उनकी लम्बी सिसकी सुन सकते हो
जो वे सोते में
रह-रह कर भर लेते हैं !
जिनको वर्षा की ठंडी रातों में
मैं उर से चिपका लेता हूँ,
तूफ़ानों के अंधड़ में
बाहों में दुबका लेता हूँ !

क्योंकि, नये युग के सपनों की ये तस्वीरें हैं !
बंजर धरती पर
अंकुर उगते धीरे-धीरे हैं !

इनकी रक्षा को
आज़ादी का त्योहार मनाता हूँ !
अपने गिरते घर के टूटे छज्जे पर
कर्ज़ा लेकर
आज़ादी के दीप जलाता हूँ !
अपने सूखे अधरों से
आज़ादी के गाने गाता हूँ !
क्योंकि, मुझे आज़ादी बेहद प्यारी है !
मैंने अपने हाथों से
इसकी सींची फुलवारी है !

पर, सावधान ! लोभी गिद्धो !
यदि तुमने इसके फल-फूलों पर
अपनी दृष्टि गड़ाई,
तो फिर
करनी होगी आज़ादी की
फिर से और लड़ाई !


आप सम्प्रति ग्वालियर "मध्य प्रदेश" में रहते हैं.
ब्लॉग: www.blogbud.com/author


3 टिप्पणियाँ:

KUMAR ADITYA VIKRAM 7 अगस्त 2008 को 9:01 am बजे  

कविता बड़ी सशक्‍त और प्रभावशाली है।
आम आदमी का यथार्थ बड़े काव्यात्मक ढंग से अंकित है।
कवि को बधाई! आपको साधुवाद!
* आदित्य कुमार

karmowala 10 अगस्त 2008 को 3:54 am बजे  

आपके विचार काफी सपष्ट परतीत होते है मुझे यकीं है की आपकी कलम मे वो सच देखने और कहने की ताकत है जिसकी हम सब को जरूरत है की हम फ़िर न सो जाए


करनी होगी आज़ादी की
फिर से और लड़ाई !क्यकी आज़ादी नही कोई खाम ओ ख्याल ये मांगती है रात दिन का आराम जिसने भी बंद करी अपनी आँखे वो सुबह जकडा मिला नई नई जंजीरों मे

Amit K Sagar 3 सितंबर 2008 को 6:21 am बजे  

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